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________________ जिन सूत्र भागः25 चाहिए होगा। लेप दूर होते ही तैरने लग जाती है।' "जिस स्थान को महर्षि ही प्राप्त करते हैं, वह स्थान निर्वाण | कभी करके देखना। तुंबी को अगर मिट्टी में लपेट दो तो जल है। अबाध है, सिद्धि है, लोकाग्र है, क्षेम, शिव और अनाबाध में डूब जाएगी। मिट्टी के वजन से डूब जाएगी। जो नहीं डूबना थी, वह डूब जाएगी। तुंबी तो लोग तैरने के काम में लाते हैं। णिव्वाणं ति अवाहंति सिद्धी लोगाग्गमेव य। बांध लेता है आदमी। नहीं तैरना जानता है तो तुंबी के सहारे तैर खेमं सिवं अणाबाहं, जं चरति महेसिणो।। जाता है। वह तुंबी जो दूसरों को तैरा देती है, खुद भी डूब जाती सिर्फ महर्षि ही जिस स्थान को प्राप्त करते हैं। जिन्होंने सब है, अगर मिट्टी का आवरण हो जाए। को शद्ध किया ऐसे ऋषि इस स्थान को प्राप्त | महावीर कहते हैं शरीर के आवरण से हम डबे। मिट्टी ने करते हैं। जिनके ध्यान में जरा-सी भी कलुष न रही-संसार की डुबाया। जो डूबने को न बने थे वे डब गए। उबरे रहना जिनका भी नहीं, परलोक की भी नहीं। स्वभाव था, जिनके सहारे और भी तर जाते और तैर जाते, जो 'जिस स्थान को महर्षि ही प्राप्त करते हैं, वह स्थान निर्वाण | तरण-तारण थे, वे डूब गए। है। अबाध है...।' तुंबी डूब जाती है मिट्टी के आवरण से। परिभाषा चल रही है। अंततः इसके पहले कि महावीर विदा | _ 'जैसी मिट्टी से लिप्त तुंबी जल में डूब जाती है और मिट्टी का हों, अपने सूत्र पूरे करें, वे अंतिम अवस्था के संबंध में लेप दूर होते ही तैरने लग जाती है...।' दिशा-निर्देश दे रहे। बस, इतना ही फर्क है तुममें और सिद्धपुरुषों में। तुममें और 'अबाध है'—उसकी कोई सीमा नहीं। बुद्धपुरुषों में। तुममें और जिन-पुरुषों में। इतना ही फर्क है। तुम 'सिद्धि है'-वहां पहुंचकर अनुभव होता है आ गए, पहुंच भी वैसी ही तुंबी, जैसी वे। तुम जरा मिट्टी से लिपे-पुते पड़े, तो गए। वहां पहुंचकर पता चलता है, अब जाने को कहीं न रहा। डूबे जल में। उन्होंने अपनी मिट्टी से अपने को दूर जान लिया, वहां पहुंचकर पता चलता है अरे! यात्रा समाप्त हुई। एक पृथक जान लिया। तादात्म्य तोड़ दिया। मिट्टी खिसक गई, तुंबी अहोभाव। सब पूरा हो गया, परिपूर्ण हो गया। अब कुछ भी न उठ गई। होने को शेष रहा, न जाने को शेष रहा। घर वापस आ गए। जब तुंबी उठती है जल में तो जाकर अग्रभाग में स्थिर हो जाती ‘सिद्धि, लोकाग्र।' जो व्यक्ति इस अवस्था में पहुंच गया, है। पानी की सतह पर स्थिर हो जाती है। ऐसा महावीर कहते हैं, वह लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाता है। वह वहां पहुंच जाता जो डूबे हैं इस संसार में वे तुंबियों की तरह हैं मिट्टी लगी-डूबे | है, जहां पहुंचने के लिए हम सदा से दौड़ते रहे—प्रथम हो जाता | हैं। जब मिट्टी छूटती है, तादात्म्य छूटता है, यह मोह भंग होता | है, तो उठी आत्मा, चली। 'क्षेम'-कल्याण की अनुभूति होती है। परम स्वास्थ्य की | और इसको महावीर कहते हैं लोकाग्र—आत्यंतिक अवस्था। अनुभूति होती है। | जहां लोक समाप्त होता है, उस जगह जाकर सिद्धपुरुष ठहर 'शिव'-बड़ी शुद्धता, सुगंध, सुरभि। बड़ी गहन जाते हैं। ये तो सिर्फ प्रतीक हैं। इन प्रतीकों का अर्थ ले लेना। पावनता। जैसे कमल और कमल और हजारों कमल भीतर प्राण इन प्रतीकों को लेकर नक्शे मत खींचने लगना। पर खिलते चले जाते हैं। 'जैसे मिट्टी से लिप्त तुंबी जल में डूब जाती है और मिट्टी का इस स्थिति में कोई भी बाधा नहीं लेप दूर होते ही तैरने लगती है, अथवा जैसे एरण्ड का फूल धूप पडती। कोई बाधा पड़ नहीं सकती। बेशर्त है। इसे कोई डिगा से सूखने पर फटता है तो उसके बीज ऊपर को जाते हैं, अथवा | नहीं सकता। इसमें कोई विघ्न नहीं डाल सकता। यह विघ्नों के जैसे अग्नि या धूम की गति स्वभावतः ऊपर की ओर होती है, पार है, अनाबाध है। अथवा जैसे धनुष से छूटा हुआ बाण पूर्व-प्रयोग से गतिमान 'जैसे मिट्टी से लिप्त तुंबी जल में डूब जाती है और मिट्टी का | | होता है, वैसे ही सिद्ध जीवों की गति भी स्वभावतः ऊपर की ओर 644] Jan Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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