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________________ याद घर बलाने लगी। आत्यंतिक शब्द है ध्यान के लिए। जहां ध्यान इतना शुद्ध हो न रह जाए तभी वस्तुतः ध्यान हुआ। तो कांटे को कांटे से जाता है कि कोई विषय नहीं रह जाता—निर्विकल्प ध्यान। निकाल लेना, फिर दोनों कांटों को फेंक देना। लेकिन महावीर कहते हैं वह भी छूट जाता है। वह भी कुछ है। स्वभावतः यह बड़ी लंबी यात्रा है। इससे बड़ी कोई और यात्रा वह भी उपाधि है। तुम कुछ कर रहे हो। ध्यान कर रहे हो। कुछ नहीं हो सकती। आदमी चांद पर पहुंच गया, मंगल पर पहुंचेगा, अनुभव हो रहा है। अनुभव यानी विजातीय। फिर और दूर के तारों पर पहुंचेगा। शायद कभी इस अस्तित्व की इधर मैं तुम्हें देख रहा हूं तो तुम मुझसे अलग। फिर तुम भीतर परिधि पर पहुंच जाए-अगर कोई परिधि है। लेकिन यह भी ध्यान में प्रविष्ट हुए। तो धर्मध्यान में आदमी शुभ भावनाएं यात्रा इतनी बड़ी नहीं है जितनी स्वयं के भीतर जानेवाली यात्रा करता, शुभ भावनाओं का दर्शन होता है; जिसको बुद्ध ने है। सारे अनुभव के पार, जहां सिर्फ प्रकाश रह जाता है चैतन्य ब्रह्मविहार कहा है, महावीर ने बारह भावनाएं कहीं, उनका का। जहां रंचमात्र भी छाया नहीं पड़ती अन्य की, अनन्यभाव से अनुभव करता। लेकिन विषय अभी भी बना है। दो अभी भी तुम्ही होते हो बस, तुम ही होते हो। हैं। फिर निर्विकल्प ध्यान में ऐसी अवस्था आ जाती है कि कोई यह धीरे-धीरे होगा। बड़े धैर्य से होगा अधीरज से नहीं होगा। विकल्प न रहा, लेकिन सिर्फ एक महासुख का अनुभव है। तुम सारे प्रयास करते रहो तो भी सिर्फ तुम्हारे प्रयास तमने कर मगर फिर भी सूक्ष्म रेखा अनुभव की बनी है। लिए इससे नहीं हो जाएगा। सारे प्रयास करते-करते, तो महावीर कहते हैं जहां सब अनुभव समाप्त हो जाते हैं, जहां करते-करते एक घड़ी ऐसी आती है कि तुम्हें अपने प्रयास भी केवल अनुभोक्ता रह जाता है बिना अनुभव के; जहां शुद्ध | बाधा मालूम पड़ने लगते हैं। प्रयास करते-करते एक दिन प्रयास चैतन्य रह जाता है और कोई विषय नहीं बचता, सच्चिदानंद भी भी छूट जाते हैं तब घटता है। जहां नहीं बचता, वहीं निर्वाण है। धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय खयाल रखना; धन, पद, प्रतिष्ठा तो रोकती ही है; दान, | माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय | दया, धर्म भी रोकता है। पद-प्रतिष्ठा छोड़कर दान-धर्म करो, कबीर का वचन है, धीरे-धीरे रे मना। धीरे-धीरे सब कुछ फिर दान-धर्म छोड़कर भीतर चलो। बाहर तो रोकता ही है, फिर होता है। और सिर्फ माली सौ घड़े पानी डाल दे इससे कोई फल भीतर भी रोकने लगता है। पहले बाहर छोड़कर भीतर चलो, नहीं आ जाते। फिर भीतर को भी छोड़ो। सब छोड़ो। ऐसी घड़ी ले आओ, जहां । माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय बस तुम ही बचे। एक क्षण को भी यह घड़ी आ जाए, तो तुम्हारा ठीक समय पर, अनुकूल समय पर, सम्यक घड़ी में घटना अनंत-अनंत जन्मों से घिरा हुआ अंधकार क्षण में तिरोहित हो घटती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि माली पानी न सींचे। जाता है। क्योंकि माली पानी न सींचे तो फिर ऋतु आने पर भी फल न पहुंच सका न मैं बरवक्त अपनी मंजिल पर लगेंगे। माली पानी तो सींचे, लेकिन जल्दबाजी न करे। प्रतीक्षा कि रास्ते में मुझे राहबरों ने घेर लिया करे। श्रम और प्रतीक्षा। श्रम और धैर्य। लुटेरे तो रास्ते में लूट ही रहे हैं। रहजन तो लूट ही रहे हैं, फिर धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय राहबर भी लूट लेते हैं। और यह यात्रा बड़ी धीमी है क्योंकि फासला अनंत है। तुम्हारी क्रोध तो लूट ही रहा है, ध्यान भी लूटने लगता है एक दिन। परिधि और तुम्हारा केंद्र इस जगत में सबसे बड़ी दूरी है। तुम्हारी हिंसा तो लूट ही रही है, एक दिन अहिंसा भी लूटने लगती है। परिधि पर संसार है और तुम्हारे केंद्र पर परमात्मा। स्वभावतः तो खयाल रखना कि अहिंसा सिर्फ हिंसा को मिटाने का उपाय | दूरी बहुत बड़ी होने ही वाली है। तुम्हारी परिधि पर दृश्य है, है। और ध्यान केवल मन की चंचलता को मिटाने का उपाय है। | तुम्हारे केंद्र पर अदृश्य। तुम्हारी परिधि पर रूप है, तुम्हारे केंद्र जब चंचलता मिट गई तो इस औषधि को भी लुढ़का देना | पर अरूप। तुम्हारी परिधि पर सगुण है, तुम्हारे केंद्र पर निर्गुण। कचरेघर में। इसको लिए मत चलना। जब ध्यान की भी जरूरत यात्रा बड़ी बड़ी है; काफी बड़ी है। अनंत यात्रा है। अनंत धैर्य 643 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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