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होती है।'
तो निर्वाण की सूचना समझना कि घर पास आने लगा, जब तुम्हारी गति ऊपर की ओर होने लगे। हिंसा से अहिंसा की ओर होने लगे। क्रोध से करुणा की ओर होने लगे, बेचैनी से चैन की ओर होने लगे, पदार्थ से परमात्मा की ओर होने लगे। धन ध्यान की ओर होने लगे, तो समझना कि गति ऊपर की तरफ शुरू हो गई। तुंबी छूटने लगी मिट्टी से । आज नहीं कल लोकाग्र में ठहर जाएगी। वहां पहुंच जाएगी, जिसके आगे और जाना नहीं है।
लाउअ एरण्डफले अग्गीधूमे उसू धणुविमुक् गइ पुव्वपओगेण एवं सिद्धाण वि गती तु ।। 'परमात्मतत्व अव्याबाध, अतींद्रिय, अनुपम, पुण्य-पापरहित, पुनरागमन - रहित, नित्य, अचल और निरालंब होता है।'
यह जो परमात्मतत्व है, यह जो निर्वाण है, यह जो घर लौट आना है, यह कैसा तत्व है? इसके संबंध में क्या कहा जा सकता है ?
इतना ही — 'परमात्म तत्व अव्याबाध।' इसमें कोई बाधा कभी नहीं पड़ती। इसके विपरीत ही कोई नहीं है, जो बाधा डाल सके। यह सबके पार है। इस तक किसी चीज की पहुंच नहीं है । सब चीजें इससे पीछे छूट जाती हैं। जिनसे बाधा पड़ सकती | है वे बहुत पीछे छूट जाती हैं। अतींद्रिय है। इंद्रियों के पार है, क्योंकि देह के पार है।
'अनुपम' – यह शब्द समझना । अनुपम का अर्थ है, जैसा कभी न जाना था; जैसा कभी न देखा था । न कानों सुना, न आंखों देखा। जो कभी अनुभव में आया ही न था । बहुत अनुभव हुए सुख, दुख के, सफलता के, विफलता के । बहुत अनुभव हुए - रस - विरस, स्वाद - बेस्वाद, सुंदर - असुंदर, लेकिन यह अनुपम है। ऐसा भी नहीं कह सकते यह सुंदर है। क्योंकि तब भ्रांति होगी कि शायद जो हमारे सुंदर के अनुभव हैं, उन जैसा है। नहीं, यह हमारे किसी अनुभव जैसा नहीं है। यह तो बस अपने जैसा है। अनुपम का अर्थ होता है अपने जैसा इसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। यह अतुलनीय है । 'पुण्य-पापरहित, पुनरागमनरहित, नित्य, अचल और निरालंब... ।'
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हमें तो वही शब्द समझ में आते हैं, जो हमारे अनुभव के हैं।
Jain Education International 2010_03
याद घर बुलाने लगी
मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन शराबघर गया। शेखी मारना उसकी आदत है। शेखी मार रहा था शराबघर के मालिक के सामने कि मैं हर तरह की शराब स्वाद लेकर पहचान सकता हूं। और ऐसा ही नहीं है, अगर तुम दस-पांच शराबें भी इकट्ठी एक प्याली में मिला दो तो भी मैं बता सकता हूं कि कौन-कौन सी शराब मिलाई गई है।
मालिक ने कहा तो रुको। वह भीतर गया, मिला लाया एक ग्लास में मार्टिनी, ब्रांडी, रम, ह्विस्की - जो भी उसके पास था, सब मिला लाया। मुल्ला पी गया और एक-एक शराब का नाम उसने ले लिया कि ये ये चीजें इसमें मिली हैं । चकित हो गया वह मालिक भी। उसने कहा, एक बार और। वह भीतर गया और एक गिलास में सिर्फ पानी भर लाया । मुल्ला ने पीया, बड़ा बेचैनी में खड़ा रह गया। कुछ सूझे न । शुद्ध पानी है। स्वाद ही उसे इसका याद नहीं रहा है शुद्ध पानी का ।
उसने इतना ही कहा, कि यह मैं नहीं जानता यह क्या है ! मगर एक बात कह सकता हूं, इसकी बिक्री न होगी ।
हमारा जो भी अनुभव है वह कई तरह की शराबों का है। शुद्ध जल का तो हम स्वाद ही भूल गए हैं। बेहोशियों का है; होश का तो हम स्वाद ही भूल गए । विक्षिप्तताओं का है, स्वास्थ्य का तो हम स्वाद ही भूल गए। गर्हित, व्यर्थ, असार का है; सार का तो हम स्वाद ही भूल गए।
इसलिए महावीर कहते हैं अनुपम । हमारे अनुभव से किसी से उसका मेल नहीं है। इसलिए तुम किसी अपने अनुभव के आधार से उसके संबंध में मत सोचना। खतरा यही हो जाता है। जैसे कि कोई कहे, कोई ज्ञानी, सिद्ध - कहे महासुख; तो हमको लगता है हमारा ही सुख होगा; करोड़ गुना, अरब गुना बड़ा, लेकिन है तो सुख । बस भूल हो गई। उसकी मजबूरी है। वह क्या कहे ? किन शब्दों में कहे ? महासुख कहता है तो भी अड़चन हो जाती है। क्योंकि तुम अपने सुख को ही सोचते हो। तुम अपने सुख में ही गुणनफल करके सोच सकते हो लेकिन तुम्हारा सुख सुख ही कहां है? उसको
करोड़ गुना कर लो तो भी वह सुख नहीं है।
आनंद कहो तो झंझट। क्योंकि तुमने जो आनंद जाना है वे अजीब-अजीब आनंद जाने तुमने। कोई ताश ही खेल रहा है, कहता है बड़ा आनंद आ रहा है। अब क्या करो ? कोई शराब
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