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________________ जिन सत्र भाग: 2 PARDENIENDRA था। सेतु के ऊपर मिट्टी डाली गयी थी। और वृक्षों को सेतु के महावीर ने निश्चित ही यही कहा होगा कि सभी साधुओं के धर्मों नीचे लटकाया गया था। अब तो सिर्फ उसकी कथा रह गयी, | का मूल ध्यान है। और तब इस सूत्र का अर्थ और भी गंभीर हो कुछ खंडहर उसके बचे हैं, लेकिन अतीत में वह दुनिया के जाता है। फिर चाहे ईसाई हों, या मुसलमान हों, या यहूदी हों, बड़े-बड़े चमत्कारों में से एक था। या हिंदू हों, या बौद्ध हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब भी कभी बेबीलोन के उस बगीचे के संबंध में मैंने पढ़ा है, और यह बात तथ्य की है कि चाहे धर्म कहीं पैदा हुआ हो, चाहे या उसके खंडहरों के चित्र देखे, तो मुझे खयाल आया कि जरूर किसी रूप-रंग में जन्मा हो, चाहे कैसी ही भाषा धर्म ने चुनी हो, यह खयाल कहीं न कहीं उपनिषदों से तैरकर बेबीलोन तक पहुंचा लेकिन जहां भी साधु पैदा हुआ है, वहां उसका मूल ध्यान है। होगा। क्योंकि उपनिषद अकेले शास्त्र हैं दुनिया में, जिन्होंने वह ध्यान कहता हो या न कहता हो—कहे प्रार्थना, कहे पूजा, कहा-आदमी उलटा लटकता वृक्ष है। यह बगीचा सिर्फ | कहे ध्यान, या कुछ और, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ध्यान का बगीचा नहीं था। नहीं हो सकता। यह आदमी का प्रतीक रहा मूल तो रहेगा ही। चाहे वृक्ष देवदारू का हो, चाहे चिनार का; होगा। यह एक शिक्षण की पाठशाला रही होगी। आदमी ऐसा चाहे आकाश को छूनेवाला वृक्ष हो और चाहे छोटा-मोटा पौधा ही वृक्ष है, जिसकी जड़ें ऊपर हैं। हो; चाहे गुलाब का पौधा हो, चाहे चांदनी का, चाहे चंपा का, 'जहा मूलम दुमस्स य। सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं क्या फर्क पड़ता है। एक बात सुनिश्चित है। सभी वृक्षों का मूल विधीयते।' वैसे ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। यह उनकी जड़ में है। बहुत फर्क है जैन-साधु में, बौद्ध-साधु में, जो अनुवाद है, दो तरह से हो सकता है। जैन-मुनि इसी तरह का हिंदू-साधु में, ईसाई-साधु में। वे सब फर्क ऊपर-ऊपर हैं। जड़ अनुवाद करते रहे, जैसा मैं पढ़ रहा हूं-जैसे मनुष्य-शरीर में में तो कोई फर्क नहीं हो सकता। जड़ तो चाहिए ही होगी। जड़ सिर और वृक्ष में उसकी जड़ उत्कृष्ट है वैसे ही साधु के समस्त | के बिना वृक्ष नहीं हो सकता, ध्यान के बिना साधु नहीं हो धर्मों का मूल ध्यान है। खयाल देना आखिरी हिस्से पर-वैसे | सकता। ध्यान के बिना धर्म नहीं हो सकता। ही साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। मूल का अनुवाद एक इसलिए पहला अनुवाद ठीक है। उस अर्थ को स्वीकार करने और तरह से भी हो सकता है। लेकिन जैन-मुनियों ने उसे शायद में कुछ अड़चन नहीं। साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान है। पसंद नहीं किया। 'सव्वस्स साधुधम्मस्स...' सब साधुओं बिलकुल ठीक है। लेकिन दूसरा और भी ज्यादा ठीक है–सब का धर्म। या तो हम कहें कि साधु के समस्त धर्मों का मूल ध्यान साधुओं के धर्म का मूल ध्यान है। है। या सब साधुओं के धर्म का मल ध्यान है। ध्यान को हम समझें कि क्या है। 'सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते।' ओ रंभाती नदियो, मैं दसरे ही अर्थ को ज्यादा पसंद करूंगा। सभी साधुओं के बेसुध कहां भागी जाती हो? धर्म का मूल ध्यान है। और इसलिए भी कि महावीर का बहुत वंशी-रव जोर था इस बात पर कि सभी धर्म सही हैं। सभी साधुओं के धर्म तुम्हारे ही भीतर है। सही हैं। इसलिए महावीर ने, महावीर के प्रसिद्ध महामंत्र ने सब ध्यान का पहला सूत्र है-जिसे तुम खोजने चले हो, वह साधुओं को नमस्कार किया है—'णमो लोए सव्व साहूणम।' खोजनेवाले में छिपा है। कस्तूरी कुंडल बसै। यह ध्यान के पाठ समस्त साधुओं को मेरा नमस्कार है। का प्रारंभ है कि पहले अपने घर को टटोल लो। आनंद को लेकिन जैन-मुनि इसका अनुवाद ऐसा करते हैं जिसमें बाकी खोजने चले हो? जगत बहुत बड़ा है। पहले घर में खोज लो, साधुओं को काटा जा सके। वे कहते हैं, वैसे ही साधु के समस्त वहां न मिले, तो फिर जगत में खोजना। कहीं ऐसा न हो कि है। क्योंकि जैन-साधु तो जैन-साधु को ही आनंद की राशि घर में लगी रहे और तुम जगत में खोजते फिरो। साध मानता है। किसी और का साध तो साध नहीं है। महावीर | अकसर ऐसा ही होता है। ऐसा ही हआ है। इतने कृपण नहीं हो सकते। ऐसी कंजूसी उन्हें शोभा भी न देगी। हम खोज रहे हैं, मिलता भी नहीं है वहां, तो हम और दूर 286 Jair Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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