SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्वरा से जीना ध्यान है A निकलते जाते हैं खोज में। जितना ही पाते हैं कि मिलना नहीं हो | है, अनुकरण जारी है। जैसे पुराने दिनों में महात्मा का प्रभाव था रहा है, उतनी ही हमारी खोज बेचैन और विक्षिप्त होती जाती है। और हर एक व्यक्ति महात्मा बनना चाहता था, वैसे अब जितना ही हम पाते हैं कि दौड़कर नहीं पहुंच रहे हैं, हम दौड़ को अभिनेता का प्रभाव है। हर एक व्यक्ति और बढ़ाये जाते हैं। हमारे मन का तर्क कहता है कि शायद ठीक है। कोई फर्क नहीं पड़ा आदमी में। से नहीं दौड़ रहे, शायद जितनी शक्ति से दौड़ना चाहिए उतनी | तुम यह मत समझना कि पहले जो आदमी महात्मा बनना शक्ति से नहीं दौड़ रहे हैं। और दौड़ो, और उपाय करो; सारे चाहते थे, वे बड़े महात्मा थे। कुछ फर्क नहीं है। वह उस भीड़ लोग बाहर दौड़े जा रहे हैं, तो होगा तो जरूर बाहर, इतने लोग | का मनोविज्ञान था, यह इस भीड़ का मनोविज्ञान है। उस दिन गलत थोड़े ही हो सकते हैं। महात्मा पूज्य था, समादृत था, उसकी प्रतिष्ठा थी। महात्मा हम जिस भीड़ में पैदा होते हैं, जन्म से ही हम पाते हैं कि भीड़ | बनने में अहंकार की तृप्ति थी। अब अभिनेता बनने में अहंकार भागी जा रही है किसी के साथ। हम भी भीड़ के हिस्से हो जाते की तृप्ति है। बात वही की वही है। हैं। कोई धन खोज रहा है, कोई पद खोज रहा है, कोई यश खोज क्रांति तो तब घटती है जब तुम भीड़ से हटते हो। जब तुम रहा है। लेकिन खोज बाहर है, सभी की बाहर है, तो हम भी कहते हो, अनुकरण अब मैं न करूंगा। अब मैं अपने से उसमें लग जाते हैं, संलग्न हो जाते हैं। मनुष्य का मन भीड़ से सोचूंगा। तुम लाख दोहराओ, तुम करोड़ हो तो भी कोई फिकिर चलता है। भीड़ का एक मनोविज्ञान है। तुम जहां बहुत लोगों नहीं, मैं अपनी सुनूंगा, मैं अपनी अंतरात्मा की सुनूंगा। मैं अपने को जाते देखते हो, तुम भी चल पड़ते हो। अनजाने यह बात हृदय की वाणी से चलूंगा। स्वीकृत कर ली गयी है कि जहां इतने लोग जा रहे हैं, वह ठीक जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी वाणी को सुनना शुरू करता है, ही जा रहे होंगे। वैसे ही समझ में ध्यान का सूत्र पड़ने लगता है। ध्यान के सूत्र का इसीलिए तो दुनिया में बहुत-सी भ्रांत धारणाएं भी सदियों तक अर्थ है, जिसे हम खोजते हैं, वह कुछ भी क्यों न हो, उसे हम चलती हैं। पता भी चल जाता है कि गलत हैं, तो भी चलती हैं, | पहले अपने घर तो खोज लें। क्योंकि भीड़ जब तक उन्हें न छोड़ दे तब तक नये लोग आते हैं | सुना है, सूफी फकीर स्त्री हुई राबिया। वह एक सांझ अपने और पुरानी धारणाओं को पकड़ते चले जाते हैं। जब तक भीड़ घर के सामने कुछ खोज रही थी, दो-चार लोग आते थे, उन्होंने उन्हें पकड़े है तब तक नये बच्चे भी उन्हें पकड़ लेंगे, क्योंकि पूछा, क्या खो गया? उसने कहा मेरी सुई गिर गयी। तो वे बच्चे तो अनुकरण करते हैं। हम सब अनुकरण में हैं। दो-चार भी उसको साथ देने लगे-बूढ़ी औरत है, आंखें भी इसलिए अलग-अलग संस्कृति, अलग-अलग समाज में, कमजोर हैं! लेकिन फिर उनमें से किसी एक को होश आया कि अलग-अलग चीजें मूल्यवान हो जाती हैं। किसी समाज में धन सुई बड़ी छोटी चीज है, जब तक ठीक से पता न चले कहां गिरी, ल्य हैं। जैसे अमेरिका। तो अमेरिका में जो भीड़ है, तो इतने बड़े रास्ते पर कहां खोजते रहेंगे? तो उसने पूछा कि मां, वह धन की दीवानी है। और सब चीजें गौण हैं, धन प्रमुख है। यह बता दे कि सुई गिरी कहां है? तो वहीं आसपास हम खोज हर चीज धन से खरीदी जा सकती है। इसलिए धन को पा लो। | लें, इतने बड़े रास्ते पर! उसने कहा बेटा! यह तो पूछो ही मत, जिन समाजों में त्याग का बड़ा मूल्य रहा है उन समाजों में सदियों सुई तो घर के भीतर गिरी है। वे चारों हाथ छोड़कर खड़े हो गये, तक लोगों ने त्याग किया है। क्योंकि त्याग को सम्मान था। उन्होंने कहा तू पागल हुई है! सुई घर के भीतर गिरी है, खुद भी बचपन से ही व्यक्ति सुनता है त्याग की महिमा, उसके मन में भी पागल बनी, हमको भी पागल बनाया। जब सुई घर के भीतर भाव जगने शुरू होते हैं—यही मैं भी करूं। गुमी है, तो भीतर ही खोज। उसने कहा, वह तो मुझे भी पता है। भारत में ऐसा हुआ। सदियों तक त्याग की महिमा रही। उस लेकिन भीतर अंधेरा है, बाहर रोशनी है—सूरज अभी ढला त्याग की महिमा के कारण करोड़ों लोग त्यागी बने। लेकिन नहीं-अंधेरे में खोजू भी कैसे? खोज तो रोशनी में ही हो त्यागी बन जाओ कि धन की दौड़ में पड़ जाओ, कोई फर्क नहीं सकती है। 1287 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy