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________________ जिन सूत्र भाग: 2 वे हंसने लगे। उन्होंने कहा कि मालूम होता है बुढ़ापे में तेरा चल सकता-वहां भी अपरिचित चोर दूसरे के अंधेरे घर में सिर फिर गया है! सठिया गयी तू! अगर घर में रोशनी नहीं है, | बड़ी व्यवस्था से चल लेता है, न तो चीज गिरती है, न आवाज तो भी खोजना तो घर में ही पड़ेगा। तो रोशनी भीतर ले जा। होती है। जिस घर में शायद कभी भी न आया हो! चोर की दीया मांग ला उधार पड़ोसी से, अगर तेरे घर में दीया नहीं। आंखों को अंधेरे का अभ्यास हो गया है। उसने धीरे-धीरे अंधेरे अब हंसने की बारी उस बुढ़िया की थी। वह बड़ी महत्वपूर्ण | में देखने की पटुता पा ली है। उसकी आंखें अंधेरे से सामंजस्य सूफी फकीर औरत हुई। वह हंसने लगी। उसने कहा कि मैं तो कर ली हैं। धूप से आते हो घर, अंधेरा मालूम पड़ता है। ऐसे ही सोचती थी कि तम इतने समझदार नहीं हो जितनी समझदारी की बाहर जन्मों-जन्मों से भटके हो, जब आंख बंद करते हो तो बात कर रहे हो। मैं तो उसी तर्क का अनुसरण कर रही थी, भीतर अंधेरा मालूम पड़ता है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। जिसका तुम सब कर रहे हो। तुम सब भी बाहर खोज रहे हो, कबीर और नानक और दादू गलत नहीं। हजार-हजार सूरज बिना बुझे कि खोया कहां? भीतर खोया है, खोज बाहर रहे हो। प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन थोड़ा अभ्यास! और कारण जो मैंने बताया, वही तुम्हारा है। क्योंकि आंखों की ध्यान का अर्थ है, भीतर होने का अभ्यास। ध्यान का अर्थ है, रोशनी बाहर पड़ती है, आंखें बाहर देखती हैं, बाहर सब | बाहर से हटने का अभ्यास। ध्यान का अर्थ है, बाहर पर पर्दा साफ-सुथरा है, भीतर बड़ा गहन अंधकार है। डाल देने का अभ्यास। बाहर पर्दा डाला कि भीतर पर्दा उठा। भीतर तुमने कभी आंख बंद करके देखा? कबीर को पढ़ो, भीतर पर्दा उठाने की और कोई तरकीब नहीं है, बस बाहर पर्दा दादू को पढ़ो, नानक को पढ़ो, तो वे कहते हैं, हजार-हजार | डाल दो। सरजों जैसा प्रकाश! तुम भीतर आंख बंद करते हो, सिर्फ 'जैसे मनुष्य-शरीर में सिर और वक्ष में उसकी जड़ उत्कष्ट, अंधेरा। कुछ सूरज का प्रकाश वगैरह नहीं दिखायी पड़ता। वैसे समस्त धर्मों का मूल ध्यान।' सूरज तो दूर, मिट्टी का दीया भी नहीं टिमटिमाता। झट आंख जैन-मुनि से पूछो ध्यान के संबंध में। वह भूल ही गया है। खोलकर तुम फिर बाहर आ जाते हो। कम से कम रोशनी तो है! | और सब साध लिया है, ध्यान बिलकुल भूल गया है। अहिंसा कम से कम रास्ते परिचित तो हैं। चीजें दिखायी तो पड़ती हैं। साधता है, अस्तेय साधता है, अचौर्य साधता है, ब्रह्मचर्य फिर खोज शुरू कर देते हो। साधता है, सब साधता है, सिर्फ ध्यान भूल गया है। यह दुर्घटना भीतर, जो आदमी बाहर का आदी हो गया है, जब पहली दफा | कैसे घटी होगी? क्योंकि महावीर चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं जाएगा तो अंधेरा पायेगा। ऐसे ही जैसे तुम भरी दोपहरी में बाहर | सब धर्मों का मूल ध्यान है। चलकर घर आते हो, एकदम अंधेरा मालूम पड़ता है। बैठ मेरे पास जैन-मुनि आते हैं, वे कहते हैं, कैसे ध्यान करें? तुम जाओ थोड़ा। थोड़ी देर में आंखें अभ्यस्त होंगी। आंख प्रतिपल | मुनि कैसे हुए? क्योंकि मुनि तो कोई हो ही नहीं सकता बिना बड़ी और छोटी होती रहती है। कभी धूप से आकर आईने में | ध्यान के! मुनि का अर्थ है, जिसका चित्त मौन हो गया। चित्त आंख को देखना, तो तुम पाओगे कि आंख बड़ी छोटी हो गयी | मौन कैसे होगा बिना ध्यान के? अब तुम पूछने आये हो कि है। क्योंकि इतनी धूप भीतर नहीं ले सकती, तो छोटी हो जाती ध्यान कैसा! कितने वर्षों से मुनि हो? कोई कहता है तीस वर्ष से है। जब अंधेरे में बैठेते हो, तो आंख बड़ी होती है। जैसे कैमरे | मुनि हैं, कोई कहता चालीस वर्ष से मुनि हैं। तो तुम मुनि शब्द का लेंस काम करता है, वैसे ही आंख काम करती है। थोड़ी देर का अर्थ भी भूल गये। मुनि का अर्थ ही ध्यानी होता है-मौन! बैठते हो तो घर में जहां पहले अंधेरा मालूम पड़ा था, अंधेरा | जिसके भीतर चित्त में अब तरंगें नहीं उठतीं विचार की। जो समाप्त हो जाता है, रोशनी मालूम पड़ने लगती है। निर्विचार हुआ, निर्विकल्प हुआ। अगर कोई व्यक्ति अंधेरे में देखने का अभ्यास करता ही रहे, मगर खयाल ही भूल गया है। मुनि शब्द का अर्थ ही भूल गया जैसा कि चोर कर लेते हैं, तो दूसरे के घर में जहां बिलकल है। ध्यान तो ऐसा लगने लगा जैसे जैन-धर्म से ध्यान का कोई अंधेरा है-घर का मालिक भी जहां बिना चीजों से टकराये नहीं | संबंध नहीं है। और जैन-धर्म मौलिक रूप से ध्यान पर खड़ा 288 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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