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जिन सूत्र भाग: 2
मिलेंगे। इतना ही नहीं, मिलने के बाद क्या-क्या करोगे उस सबकी भी योजना बना चुके थे। तो जब मिलते हैं, तब चौंकाते नहीं तुम्हें । विस्मय से नहीं भरते, आनंद-विभोर नहीं करते। अगर न मिले तो तुम दुखी जरूर हो जाते हो।
कलकत्ते में मेरे एक मित्र हैं, उनके घर मैं कभी-कभी रुकता था। एक बार मुझे लेकर एअरपोर्ट से वे घर जा रहे थे, उदास थे; तो मैंने पूछा कि क्या मामला है ? वे बोले कि बड़ा नुकसान लग गया, कोई पांच लाख का नुकसान लग गया। उनकी पत्नी भी पीछे थी कार में, वह हंसने लगी। उसने मुझसे कहा, आप | इनकी बातों में मत पड़ना। मैंने कहा, वे उदास हैं और तू हंस रही है; बात क्या है ?
तो उसने कहा, मामला ऐसा है कि नुकसान हुआ नहीं, पांच | लाख का लाभ हुआ है। लेकिन दस लाख का होना चाहिए था, इसलिए ये दुखी हैं। इनको मैं लाख समझा रही हूं कि तुम्हें पांच लाख का लाभ हुआ। मगर ये कहते हैं, वह कोई सवाल ही नहीं है, दस का होना निश्चित ही था। पांच का नुकसान हो गया।
अब जिसको दस लाख का लाभ होना है, उसे पांच लाख का भी लाभ हो तो प्रसन्नता कैसे हो ? क्योंकि प्रसन्नता तो तुम्हारी अपेक्षा पर निर्भर होती है।
तुम खयाल करना, अगर तुम अपेक्षाशून्य हो जाओ तो तुम्हारे जीवन में आनंद की वर्षा हो जाएगी। अगर तुम्हारी कोई आशा न रह जाए तो तुम पाओगे, प्रतिपल स्वर्ग के फूल खिलने लगे। जिसकी कोई आशा नहीं है उसे तो सांस चलना भी बड़े आनंद की घटना मालूम पड़ती है। जिंदा हूं, यह भी बहुत है । यह भी कोई जरूरी तो नहीं है कि होना चाहिए। इसकी भी कोई ऐसी अनिवार्यता तो नहीं है। यह जगत मुझे जिलाए ही रखे, इसकी क्या अनिवार्यता है? मेरे दीये को बुझा दे तो शिकायत कहां करूंगा ? अपील की कोई कोर्ट भी तो नहीं है । मेरा दीया जल रहा है, यह भी धन्यभाग है।
जिस व्यक्ति के जीवन में आशा नहीं है, होना मात्र भी परम आनंद है। छोटी-छोटी चीजें आनंद की हो जाती हैं। हवाओं का वृक्षों से गुनगुनाते हुए गुजर जाना! वृक्षों में नई कोपलों का फूट आना ! सुबह पक्षियों की चहचहाहट ! रात आकाश का तारों से भर जाना! राह पर किसी आदमी का नमस्कार कर लेना, किसी बच्चे का मुस्कुरा देना, किसी का प्रेम से हाथ हाथ में ले
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लेना - सभी कुछ अपूर्व है।
लेकिन आशारहित व्यक्ति हो तो प्रतिक्षण सोने का है; प्रतिक्षण में सुगंध है, प्रतिक्षण में स्वर्ग है।
महावीर कहते हैं, 'संसार से जो सुपरिचित, निस्संग, निर्भय और आशारहित है, उसी का मन वीतरागता को उपलब्ध होता है; और वही ध्यान में सुनिश्चल, भलीभांति स्थित होता है।'
ध्यान की स्थिरता का अर्थ है, वर्तमान के क्षण से यहां-वहां न जाना; जरा भी डांवांडोल न होना। जो है, उसके साथ पूरी समरसता से जीना। जो है, उससे अन्यथा की न मांग है, न चाह है, न आशा है। जो है, वैसा ही होना चाहिए। ऐसा ही भाव है। जो है, वह वैसा है ही जैसा होना चाहिए था । न कोई विरोध है, न कोई निंदा है, न कोई आलोचना है।
तथ्य की इस स्वीकृति का नाम तथाता है। और जो ऐसी तथाता को उपलब्ध हुआ, उसको महावीर और बुद्ध दोनों ने तथागत कहा है । तथागत बुद्ध और महावीर का विशिष्ट शब्द है । उसका अर्थ होता है, तथाता को उपलब्ध; तथ्य की स्वीकृति को पूर्णता से उपलब्ध है। जो है, है; जो नहीं है, नहीं है। और इसमें मेरा कोई चुनाव नहीं है। मैं राजी हूं। जो है, उसके होने से राजी हूं। जो नहीं है, उसके नहीं होने से राजी हूं। अन्यथा की कोई चाह नहीं है। तथ्य का पूरा स्वागत है। ऐसा व्यक्ति ही ध्यान को स्थित होता है।
आमतौर से तो हम रोते ही रहते हैं। लोगों की आंखें देखो, तुम उन्हें सदा आंसुओं से भरी पाओगे । हजार शिकायतें हैं । शिकायतें ही शिकायतें हैं । सारा अतीत व्यर्थ गया, वर्तमान व्यर्थ जा रहा है, भविष्य की आशा पर टंगे हैं। बड़ा पतला धागा है, जिससे तलवार लटकी है। वह भी होगा इसका पक्का भरोसा थोड़े ही है ! सिर्फ आशा है, भरोसा नहीं है।
भरोसा हो भी कैसे सकता है? आशा तो पहले भी की थी, हर बार टूट गई। आशा-आशा करके तो अब तक गंवाया; मिला कुछ भी नहीं । लेकिन बिना आशा के जीयें भी कैसे? तो फिर आगे के लिए सरका लेते हैं। पीछे के लिए रोते रहते हैं, आगे के लिए रोते रहते हैं । और बीच के क्षण में परमात्मा तुम्हारे द्वार दस्तक देता रहता है। परमात्मा कहता है, यहां, इसी क्षण ! खोलो आंखें ! देखो, मैं मौजूद हूं!
लेकिन हमें फुर्सत कहां ? वर्तमान का छोटा-सा क्षण, बड़ा
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