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________________ - ध्यान है आत्मरमण छोटा है—आणविक, हमारी चिंताओं में अतीत और भविष्य | लेकिन जब दूसरों से संबंध धीरे-धीरे छोड़ देते हो, भीतर जान की, कहीं खो जाता है। लेते हो, जाग जाते हो कि कोई अपना नहीं, तो यह शरीर की दौड़ कभी सोचना बैठकर बंद हो जाती है। इस दौड़ के बंद होते ही धीरे-धीरे शरीर के साथ आओ कि आज गौर करें इस सवाल पर तुम्हारी जो आंतरिक आसक्ति है, वह क्षीण हो जाती है। जब देखे थे हमने जो वह हंसी ख्वाब, क्या हुए? कोई अपना नहीं है तो एक दिन पता चलता है कि शरीर भी पहले भी तुम ख्वाब देखते रहे थे; उनका क्या हुआ? अब | अपना नहीं है। मैं शरीर नहीं हूं, यह बोध गहन होता है। फिर ख्वाब देख रहे हो। जो उनका हुआ, वही इनका भी होगा। और जब यह बोध गहन होता है, तब एक और नई क्रांति मरते वक्त रोओगे कि ख्वाब में ही गंवाया। आशा में ही घटती है कि मैं मन भी नहीं हूं। जैसे शरीर जोड़ता है दूसरों से, बंधे-बंधे नष्ट हुए। ऐसा मन जोड़ता है शरीर से। जैसे-जैसे तुम पीछे हटते जाते हो, ख्वाब छोड़ो। ये स्वप्नीली आंखों पर थोड़ा पानी छिड़को होश सेतु टूटते जाते हैं। का। थोड़ा झकझोरो अपने को, जगाओ। और इस क्षण में लौट शरीर जोड़ता है संसार से, पर से। पर से संबंध गिरा, शरीर आओ। पकड़-पकड़कर...। का संबंध शिथिल हुआ। शरीर का पता चला कि शरीर मुझसे पहले तो बड़ी कठिनाई होगी। क्योंकि मन की परानी आदतें अलग है, मैं देह नहीं, तो मन जोड़ता है शरीर से। अब मन के हैं, वह खिसक-खिसक जाता है। तुमने इधर से पकड़ा, वह भी जोड़ने का कोई कारण न रहा। मैं शरीर नहीं हूं तो मन का दूसरी गली से निकल गया। पीछे गया, आगे गया, यहीं भर नहीं | जोड़ भी उखड़ा। आता। लेकिन तुम कोशिश करते रहो, कोशिश करते रहो, कभी और जैसे ही जोड़ उखड़ा कि आखिरी क्रांति घटती है। पता अगर क्षणभर को भी यहां रुक जाएगा, तो स्वाद की शुरुआत हो चलता है कि मैं मन भी नहीं हूं; उसके पार जो शेष है, वही हूं। जाएगी-सत्य का स्वाद! फिर स्वाद पकड़ लेता है। फिर उस वही हूं। स्वाद के कारण मन ज्यादा-ज्यादा रुकने लगता है। उससे संबंध कभी नहीं छूटता। वही है शाश्वत आत्मा। वही 'ध्यान-योगी अपने आत्मा को शरीर तथा समस्त बाह्य | है तुम्हारे भीतर सनातन। वही है नित्य। वही संयोगों से भिन्न देखता है। अर्थात देह तथा उपाधि का सर्वथा | शरीर मरता है; इसलिए शरीर के साथ जुड़े तो भय रहेगा। त्याग करके निस्संग हो जाता है।' मन बदलता है; मन के साथ जड़े तो जीवन में कभी थिरता न जिसने यह जाना कि कोई मेरा नहीं है, कोई मित्र नहीं, कोई होगी। प्रियजन नहीं; जिसने यह समझा कि मैं अकेला हूं, उसे जल्दी ही शरीर और मन के पार जो छिपा है-साक्षी, चैतन्य—उससे | एक और नई समझ आएगी। और वह समझ होगी कि मैं शरीर जुड़े तो फिर सब शाश्वत है, सब थिर है। फिर कोई परिवर्तन की नहीं हूं। क्योंकि दूसरों के साथ हम जो संबंध जोड़े हैं, वह शरीर लहर नहीं आती। फिर तुम उस अनंत गृह में पहुंचे, जहां से से जोड़े हैं। जब दूसरों से संबंध टूट जाता है तो शरीर से संबंध निकलने का कोई कारण नहीं। जहां तुम सदा के लिए विश्राम शिथिल होने लगता है। जो आदमी दौड़ता है, उसके पैर मजबूत कर सकते हो। जहां विराम है—चिंताओं से, विचारों से, रहते हैं। जब वह घर बैठ जाता है, दौड़ना बंद कर देता है, पैर अशांतियों से, तनावों से। तुम अपने घर वापिस आए। अपने आप कमजोर हो जाते हैं। अगर वह वर्षों तक बैठा ही रहे | 'ध्यान-योगी अपने शरीर को तथा समस्त बाह्य संयोगों को तो फिर चल ही न पाएगा। | भिन्न देखता है। देह तथा उपाधि का सर्वथा त्याग करके निस्संग जब तुम्हारा मन शरीर के माध्यम से दूसरों से बहुत संबंध हो जाता है।' बनाता है, हजार तरह के नाते जोड़ता है तो शरीर मजबूत रहता 'वही श्रमण आत्मा का ध्याता है, जो ध्यान में चितवन करता है। शरीर की पकड़ गहरी रहती है, आसक्ति भारी रहती है। है कि मैं न पर का है, न पर पदार्थ या भाव मेरे हैं। मैं तो एक क्योंकि उसी के द्वारा...वही तो सेतु है दूसरे तक पहुंचने का। शुद्ध-बुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूं।' 335 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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