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जिन सूत्र भागः2
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'चितवन'—जैनों का अपना शब्द है। इसे तुम चिंतन से एक अकंप होने की दिशा है वर्तमान। मत समझ लेना। चिंतन से भिन्न करने के लिए ही इस शब्द को 'तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते।' गढा गया है चितवन। चिंतन का अर्थ होता है. सोचना. और | न तो अतीत में कोई सार्थकता है. और न भविष्य में कोई चितवन का अर्थ होता है देखना।
सार्थकता है। तथागत तथ्य में देखते हैं। तथ्य में देखने से ही, तुम ऐसा बैठकर सोच सकते हो कि मैं शुद्ध-बुद्ध परमात्मा हूं; तथ्य के साथ जुड़ने से ही, जो है उसमें उतरने से ही, सत्य का इससे कुछ लाभ न होगा। यह तो मन में ही उठी तरंग है। यह तो अनुभव उपलब्ध होता है। मन ही दोहरा रहा है। नहीं, ऐसा सोचना नहीं है, ऐसा देखना है। तथ्य द्वार है सत्य का। ऐसा विचार में नहीं, भीतर दोहराना है। ऐसा भीतर अनुभव में ....कल्पनामुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो।' लाना है। ऐसा स्पष्ट दिखाई पड़े कि मैं शुद्ध-बुद्ध परमात्मा हूं। अनुपश्यी वर्तमान का! वर्तमान की प्रतीति में, वर्तमान के इसमें जरा भी शंका और शल्य न रहे। इसमें जरा भी संदेह की अनुभव में, वर्तमान के साक्षात्कार की जो दशा है, जो इस समय छाया न पड़े। यह श्रद्धा परिपूर्ण हो। यह हो जाती है। गुजर रहा है सामने से, उसको ही देखता है। उसका ही अनुपश्यी
जो आशारहित, निस्संग भाव से जीता है. स्वभावतः धीरे-धीरे होता है। उसे यह दृष्टि उपलब्ध होती है। यह सम्यकत्व उपलब्ध होता अवेयरनेसं, जागरूकता बस इस क्षण की होती है। इसे थोड़ा है। वह देखने लगता है अपने भीतर। उसे साफ दिखाई पड़ने करने की कोशिश करो। कठिन है, अति कठिन है। लेकिन जब लगता है कि मैं देखनेवाला हूं। जो भी दिखाई पड़ता है, वह मैं | सधता है तो सभी कठिनाइयां सहने योग्य थीं, ऐसा पता नहीं है। हो भी कैसे सकता है? जो मझे दिखाई पड़ता है. उससे चलेगा। तब बहमल्य हीरा. अमल्य हीरा हाथ लगता है। मैं अलग हो गया। मैं तो वह हूं, जिसे दिखाई पड़ता है। थोड़ी कोशिश करो। जो भी तुम कर रहे हो...रास्ते पर चल
इसलिए धीरे-धीरे समस्त दृश्यों से अपने को मुक्त करके शुद्ध रहे हो, तो बस चलने का ही अनुपश्यन, चलने की ही द्रष्टा में लीन हो जाने का नाम चितवन है।
| जागरूकता रहे। भोजन कर रहे हो तो भोजन करने की ही 'वही श्रमण आत्मा का ध्याता है...।'
जागरूकता रहे। और महावीर कहते हैं, वही ध्यान को उपलब्ध हुआ, जो झेन फकीर बोकोजू से किसी ने पूछा कि तुम्हारी साधना क्या | चितवन करता है, जो देखता है, जिसके अनुभव में आता है, है? उसने कहा, जब भोजन करता हूं तो सिर्फ भोजन करता है जिसकी प्रतीति में उतरता है कि मैं न पर का हूं, न पर मेरे हैं। मैं और जब कुएं से पानी भरता हूं तो सिर्फ कुएं से पानी भरता हूं। एक शुद्ध-बुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूं।
. | और जब सो जाता हूं तो सिर्फ सो जाता हूं। 'तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते...।' उस आदमी ने कहा, यह भी कोई साधना हुई? यह तो सभी 'तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते। करते हैं। कल्पनामुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो, कर्म-शरीर का | बोकोजू ने कहा, काश! सभी यह करते होते तो पृथ्वी पर बुद्ध शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है।'
ही बुद्ध होते। सब तथागत होते। तुम जब भोजन करते हो तब "तथागत अतीत और भविष्य में नहीं देखते'-वही तथागत तुम हजार काम और भी करते हो। भोजन तो शायद ही करते हो, की परिभाषा है; जो न पीछे देखता है, न आगे। जो बस यहीं है; और ही काम ज्यादा करते हो। इस क्षण में पर्याप्त है। जो इस क्षण से बाहर नहीं जाता। आदमी भोजन पर बैठा है, वह यंत्रवत भोजन को फेंके जाता है
जैसे दीये की लौ हवा के झोंके में कंपती इधर-उधर, फिर हवा | शरीर में। मन हजारों दिशाओं में भटकता है। न मालूम के झोंके बंद हो गए और दीये की लौ अकंप जलती है। जब तुम कहां-कहां की यात्राएं करता है। न मालूम कितनी योजनाएं | अकंप होते हो, तुम यहां होते हो। जरा कंपे कि या तो अतीत में | बनाता है। गए, या भविष्य में गए। दो ही दिशाएं हैं कंपने की।
तुम रास्ते पर चलते हो, जब चलते हो तो सिर्फ चलते हो? 336 Jal Education International 2010_03
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