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रहा था, उसने देखा एक कुतिया, उसकी पीठ सड़ गयी है, उसमें कीड़े पड़ गये हैं—वह उसे दिखायी पड़ी। उससे न रहा गया। बैठा, उसके कीड़े अलग किये, जब वह उसके घाव धो रहा था, तभी ध्यान घटा। जो नौ साल में नहीं घटा था, वह घटा । अचानक, जैसे कुछ गहन में भीतर खींचे लिये चला गया। आंख बंद हो गयीं, वह भीतर पहुंच गया। जिसकी तलाश थी, वह रोशनी सामने खड़ी है। जिसकी तलाश थी, वह बुद्धत्व खिला । उसने कहा, हे प्रभु! इतने दिन तक खोजता था— नौ वर्ष अथक श्रम किये, तब तुम न दिखायी पड़े, तब यह रोशनी न मिली, अब ! ! तो कहते हैं उस रोशनी से उत्तर आया कि मैं तो तब भी तेरे ही भीतर था, लेकिन तेरे ध्यान की चेष्टा बड़ी अहंकार - पूर्ण थी। तेरा अहंकार बाधा बन रहा था। इस कुतिया के घाव धोते वक्त एक क्षण को तेरा अहंकार मौजूद न रहा । करुणा हो, तो अहंकार मौजूद नहीं रहता । प्रेम हो, तो अहंकार समाप्त हो जाता है। मैं तो सदा से तेरे पास था - नौ महीने से भी और नौ सालों से भी, नौ जन्मों से भी । मैं तो भीतर था ही, मैं तेरा स्वभाव हूं, लेकिन तू भीतर नहीं आ पाता था। ध्यान भी कर रहा था तू, तो उसमें अकड़ थी— मैं पाकर रहूंगा। वह अहंकार की उदघोषणा थी ।
भीतर जाना है जिन्हें उन्हें बाहर की दौड़ छोड़नी है। और बाहर की दौड़ का जो सूक्ष्म सूत्र है — अहंकार - वह भी तोड़ना है। स्वयं को मिटाये बिना कोई ध्यान को उपलब्ध नहीं होता। और स्वयं को मिटाये बिना कोई स्वयं को उपलब्ध नहीं होता । यह जिसको हमने अभी स्वयं समझा है, जिसको अभी हम कहते हैं— 'मेरा', 'मैं', यह हमारी आत्मा नहीं है। यह आत्मा ही होती, तो हम परम आनंद से भर गये होते। यह अहंकार है।
अहंकार का अर्थ है, यह हमने बाहर से इकट्ठा किया है। किसी स्कूल में 'गोल्ड मेडल' मिल गया था, वह जुड़ गया। किसी अखबार में नाम छप गया था, वह काटकर चिंदी जोड़ । कोई आदमी ने हंसकर कह दिया कि तुम बड़े सुंदर हो, वह भी जोड़ लिया। किसी ने कहा कि तुम बड़े त्यागी हो, किसी ने कहा तुम बड़े सच्चरित्र हो, कहीं 'पद्मश्री' मिल गयी, कहीं 'भारतरत्न' हो गये, इस तरह के सब पागलपन इकट्ठे कर लिये, उन सबको जोड़कर अहंकार की थेगड़ी बनाकर बैठ गये हैं। तुम जरा कभी सोचना कि 'मैं कौन हूं', तो जो भी उत्तर आयें
Jain Education International 2010_03
त्वरा से जीना ध्यान है
तुम हैरान होओगे, ये बाहर से दिये गये उत्तर हैं । कोई तुम्हारी मां ने दिया था, कोई तुम्हारे पिता ने, कोई तुम्हारे मित्र ने, कोई तुम्हारी पत्नी ने, कोई तुम्हारे शत्रु ने, कोई अपनों ने, कोई परायों ने। इन सबको इकट्ठा कर के तुमने एक घास-फूस की झूठी प्रतिमा खड़ी कर ली है। और निश्चित ही यह प्रतिमा प्रतिपल घबड़ायी रहती है, क्योंकि यह बिलकुल झूठी है । यह कभी भी गिर सकती है और बिखर सकती है। इसमें कोई बल नहीं है, कोई प्राण नहीं है।
ध्यान का अर्थ है, पहले बाहर से भीतर मुड़ना । और भीतर जाते वक्त तुम पाओगे दरवाजे पर अड़ा हुआ ताला। वह ताला है अहंकार का।
'जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प समाधि में लीन हो गया, उसके चिरसंचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करनेवाली आत्मरूप अग्नि प्रगट होती है ।'
'जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है।' नमक की डली पानी में डालते ही खो जाती है । विलीन हो जाती है। ऐसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प ध्यान में लीन हो गया, जिसने बाहर को छोड़ा, बाहर से बने हुए प्रतिबिंबों के अहंकार को छोड़ा, निर्विकल्प हुआ, निशल्य हुआ, अपने एकांत में ठहरा, तत्क्षण जन्मों-जन्मों की चिरसंचित शुभ-अशुभ कर्मों की जो राशि है, वह विलीन हो जाती है।
महावीर बड़ी क्रांतिकारी घोषणा कर रहे हैं। वह कह रहे हैं, जन्मों-जन्मों की कर्म की शृंखला को मिटाने के लिए यह सोचना कि जन्म-जन्म लगेंगे अब शुभ कर्म करने में, एक-एक कर्म को काटना पड़ेगा। तब तो असंभव हो जाएगा। क्योंकि हम कितने अनंत काल से कर्म करते रहे। अगर एक-एक कर्म को काटना पड़े, तो अनंत काल लग जाएगा। तब तो मुक्ति असंभव है।
महावीर कहते हैं, एक क्षण में भी घट सकती है घटना, त्वरा चाहिए, तीव्रता चाहिए; अग्नि की प्रगाढ़ता चाहिए - एक क्षण में सारा अतीत भस्म हो सकता । और तुम ऐसे ताजे हो सकते हो, जैसे तुम पहले क्षण जन्मे, जैसे इसके पहले तुम कभी थे ही नहीं। तुम्हारा सारा इतिहास ध्यान की एक गहरी झलक में विलीन हो सकता है, विदा हो सकता है। जन्मों-जन्मों की जमी
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