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जिन सूत्र भाग: 2
हुए
गात शिथिल जाते हैं। अभी तो तुम्हारे अर्जुन ने प्रश्न ही नहीं जब कोई थोथे ज्ञान से मुक्त हो जाता है, तो वास्तविक का जन्म पूछा, तो तुम्हारा कृष्ण बोले कैसे ? होता है। शायद वास्तविक तो मौजूद ही है, थोथे के कारण पता नहीं चलता ।
तो बाहर के कृष्ण और बाहर के अर्जुन को थोड़ा बाहर ही छोड़ देना । प्रश्न बनना, तो तुम अर्जुन बनोगे । और ध्यान रखना, जहां भी अर्जुन प्रगट होता है, वहां कृष्ण प्रगट हो ही जाएंगे। जहां प्रश्न है, वहां उत्तर आयेगा ही । तुम प्रश्न भर पैदा कर लो, लेकिन प्रश्न सच्चा हो, प्रगाढ़ हो, ज्योतिर्मय हो। तुम अपने को दांव पर लगाने को तैयार होओ। अर्जुन ने ऐसे ही पूछा होता - काम चलाऊ; ऐसे ही कृष्ण को प्रभावित करने के लिए, | देखो मैं कितना धार्मिक हुए जा रहा हूं—अर्जुन ने ऐसे ही पूछा होता कि चलो, क्या हर्ज है, कृष्ण को भी तृप्ति मिल जाएगी कि कैसा महान शिष्य मेरा, कैसा महान साथी ! अर्जुन कोई अभिनय नहीं कर रहा था। वही तो गीता का यथार्थ है । वस्तुतः उसके प्राण कंप गये देखकर ।
तुम अगर आंख खोलकर जगत को देखा है, तुम्हारे प्राण भी कंपने चाहिए। तुमने अगर गौर से देखा, तो युद्ध-पंक्तियां बंधी खड़ी हैं। हजारों तरह का युद्ध चल रहा है, संघर्ष चल रहा है, हिंसा हो रही है। तुम उसमें भागीदार हो । अर्जुन को इतना ही तो | दिखायी पड़ा कि कम से कम मैं तो अलग हो ही जाऊं; जो हो रहा है, हो। कम से कम यह दाग मेरे उपर तो न पड़े। वह थककर बैठ गया। उसने कहा, मैं भाग जाऊं । छोड़ दूं सब। कुछ सार नहीं । इतनी मृत्यु ! इतनी हिंसा ! मिलेगा क्या ? राज-सिंहासन पर बैठ जाऊंगा तो क्या होगा ? इतनी लाशों के ऊपर राज-सिंहासन रखा जाएगा? नहीं, यह प्रतिस्पर्धा, यह प्रतियोगिता मेरे काम की नहीं। उस घड़ी तैयारी बनी। उस घड़ी जिज्ञासा उठी और यह जिज्ञासा कुतूहल न थी । यह ऐसे ही पूछ लिया प्रश्न न था चलते-चलते। इसके पीछे गहरे प्राण दांव पर लगाने की तैयारी थी। तुम अभी अर्जुन नहीं बने, तुम्हारी गीता पैदा नहीं हो सकती।
तो जब बाहर की गीता उत्तर देने लगे, कहना कि महाराज, हे कृष्ण महाराज, तुम बाहर रहो ! अभी मुझे प्रश्न को जीने दो, अभी अर्जुन पैदा नहीं हुआ, तुम समय के पहले आ गये। उधार जो तुमने सीख लिया हो, बुद्धि में जो इकट्ठा कर लिया हो कूड़ा-कर्कट सब तरफ से बटोरकर, उसे बाहर रख देना। ध्यान की प्रक्रिया थोथे ज्ञान से मुक्त होने की प्रक्रिया है । और
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एक बौद्ध भिक्षु हुआ - आर्य असंग बड़ा बहुमूल्य भिक्षु हुआ । उसके जीवन में बड़ी अनूठी कथा है। नालंदा में आचार्य था। फिर समझ आयी संसार की व्यर्थता की तो सब छोड़कर चला गया। तय कर लिया कि अब तो ध्यान में ही डूबूंगा, हो गया ज्ञान बहुत । जान लिया सब, और जाना तो कुछ भी नहीं । पढ़ डाले शास्त्र सब, हाथ तो कुछ भी न आया । छोड़कर पहाड़ चला गया। एक गुफा में बैठ गया। तीन साल अथक ध्यान किया। लेकिन कहीं मंजिल करीब आती मालूम न पड़ी।
हतोत्साह, हताशा से भरा गुफा से बाहर निकल आया। सोचा लौट जाऊं। तभी उसने क्या देखा कि एक चिड़िया वृक्षों से तोड़-तोड़कर लाती है, पत्ते गिर- गिर जाते हैं, घोंसला बनता नहीं; मगर फिर चली जाती है, फिर ले आती है, फिर चली जाती है, फिर ले आती है। उसने सोचा क्या इस चिड़िया से भी कमजोर है मेरा साहस और मेरी आशा और मेरी आस्था ? घोंसला बन नहीं रहा है, लेकिन इसकी कहीं भी आशा नहीं टूटती, हताशा नहीं आती। वह फिर वापस गुफा में चला गया। तीन साल तक कहते हैं, फिर उसने हिम्मत करके ध्यान किया। कुछ न हुआ । सब श्रम लगा दिया, लेकिन कुछ न हुआ। फिर घबड़ाकर एक दिन बाहर आ गया और कहा, अब बहुत हो गया ! फिर उस वृक्ष के नीचे बैठा था कि देखा एक मकड़ी जाला बुन रही है। गिर गिर जाती है, जाले का धागा सम्हलता नहीं, फिर-फिर बुनती है। फिर उसे खयाल आया कि आश्चर्य की बात है, ऐसी चीजें मुझे बाहर आते ही से दिखायी पड़ जाती हैं। अभी मकड़ी भी नहीं हारी, मैं क्यों हारूं ? एक बार और कोशिश कर लूं। कहते हैं, वह फिर तीन साल ध्यान किया। कुछ न हुआ। बहुत परेशान हुआ । अब उसने सोचा, अब बाहर निकलूंगा पता नहीं फिर कुछ हो जाए, तो अब की दफे आंख बंद करके ही चले जाना है। अब कुछ भी हो रहा हो बाहर—मकड़ी हो कि चिड़िया हो कि कुछ भी हो, परमात्मा कोई भी इशारे दे, अब बहुत हो गया, नौ साल कोई थोड़ा वक्त नहीं, सारा जीवन गंवा दिया।
वह आंख बंद करके भागा। वह जैसे ही पहाड़ से नीचे उतर
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