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________________ जिन सूत्र भाग: 2 धूल तुम्हारे दर्पण पर, हवा के एक झोंके में बिखर सकती है। ध्यान अभ्यास न रहा, सिद्धि हो गयी। जब तुम्हारे भीतर झोंका बलशाली चाहिए ! निर्विचार रहना तुम्हारी सहज संपदा हो गयी - तुम जब चाहो तब आंख बंद करके निर्विचार हो गये। पहले तो बड़ा कठिन होगा। पहले तो उलटी हालत हो जाएगी। जब आंख बंद करोगे, विचारों का हमला होगा। उससे भी ज्यादा — दुकान पर बैठकर जितना नहीं होता उतना मंदिर में होता है, कभी खयाल किया ? दुकान पर बैठकर काम में लगे रहते हो, उलझे रहते हो विचारों का कोई खास हमला पता नहीं चलता है। लेकिन मंदिर में जाकर बैठते हो कि चलो घड़ीभर शांति से बैठें, आंख बंद की कि न मालूम कहां-कहां के विचार खड़े हो जाते हैं । संगत- असंगत; अच्छे-बुरे; सार्थक-व्यर्थ; जिनसे कुछ भी नहीं लेना-देना, वे सब सिर उठाने लगते हैं। क्या जाता है ? मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं जब ध्यान करते हैं, तब विचार और ज्यादा आते हैं। इससे तो बिना ध्यान में कम आते हैं। बिना ध्यान में कम आते हैं, क्योंकि जब तुम बिना ध्यान में हो, तब तुम्हारा मन कहीं संलग्न होता है, कहीं लगा होता है। तो जिस तरफ तुम संलग्न हो, उसी सीमा से बंधे हुए विचार, उसी अब एक रात अगर कम जीये, तो कम ही सही यही बहुत है कि हम मशालें जला के जीये इससे क्या फर्क पड़ता है कि कितनी देर जीये! कितने गहरे दिशा से बंधे हुए विचार आते हैं। जब तुम ध्यान में बैठे जीये.. ...! हो – असंलग्न, अव्यस्त - तो सभी दिशाओं से विचार आते हैं। तब तुम घबड़ा जाते हो। ध्यान लगता नहीं। शुरू-शुरू में यह स्वाभावकि है । बहुत-से विचार तुम्हारे भीतर पड़े हैं, जो तुमने दबा रखे हैं, वह उभरेंगे। इसलिए पहले ध्यान में रेचन होगा। सब कूड़ा-कबाड़ उठेगा। जैसे वर्षों तक किसी ने घर को बुहारा न हो, फिर एक दिन घर में आये तो धूल उठने लगे। धूल की पर्तें की पर्तें जमी हैं। हां, बाहर बैठे रहो, पोर्च में, तो भीतर सब शांति है, कोई धूल नहीं उठती। भीतर जाओ, तो धूल उठती है । ऐसे ही जन्मों-जन्मों तक हमने विचार की धूल को जमने दिया है – भीतर गये नहीं, बुहारी लगायी नहीं । भीतर कभी वर्षा होने न दी, स्नान होने न दिया, अब जब भीतर जाएंगे तो जन्मों-जन्मों का कचरा उठेगा। इसकी सफाई करनी होगी। और जब कोई सफाई करता है, तो धूल बड़े जोर से उठती है। ऐसे ही ध्यान में विचार बड़े जोर से ध्यान एक मशाल बने । दोनों छोरों से जले । | जर्मनी की एक बहुत विचारशील महिला रोजा लक्ज़ेंबर्ग | कहती थी कि मैंने एक ही बात जीवन में पायी कि अगर तुम | अपनी मशाल को दोनों तरफ से एक-साथ जलाओ, त्वरा से जीओ, सघनता से जीओ, तो परमात्मा दूर नहीं। हम ढीले-ढीले जीते हैं, सुस्त-सुस्त जीते हैं— कुनकुने - कुनकुने — कभी वह घड़ी नहीं आती जहां हमारा जल वाष्पीभूत हो जाए। हम लंबा जीना चाहते हैं, गहरा नहीं जीना चाहते। हम आशीर्वाद देते हैं कि सौ साल जीओ। सौ साल जीने से क्या होगा! जैसे मुर्दे की तरह जी रहे हो, ऐसे हजार साल भी जीओ तो कोई सार नहीं है। यह आशीर्वाद भ्रांत है। यह आशीर्वाद शुभ नहीं है। सौ साल जीने से क्या लेना! एक दिन भी जीओ, लेकिन जीओ ! ऐसे सौ साल घसिटने से क्या होगा ? ध्यान रखना, बाहर की तरफ जानेवाला व्यक्ति मात्रा और परिमाण पर जोर देने लगता है— सौ साल जीये। भीतर | जानेवाला व्यक्ति कहता है, जीओ चाहे एक क्षण, लेकिन ऐसी परिपूर्णता से जीओ, ऐसी समग्रता से जीओ कि उस एक क्षण में शाश्वतता समाविष्ट हो जाए। और एक क्षण में शाश्वत समाविष्ट हो जाता है। एक छोटा-सा क्षण अनंत काल बन सकता है। सवाल गहराई का है। लंबाई का नहीं । ऐसा समझो कि एक आदमी पानी में रहा है। ऐसा तैरता चला जाता है एक किनारे से दूसरे किनारे, यह एक ढंग है । यह हम सबका ढंग है। सतह पर तैरने का। और एक आदमी डुबकी लगाता है, पानी में गहरे जाता है। गहराई में जाना ध्यान है, सतह पर तैरते रहना संसार है । सतह पर तैरनेवाले राजनीति में हैं । गहरे जानेवाले धर्म में । 'पानी का योग पाकर नमक जैसे विलीन हो जाता है, ऐसे ही उठते हैं। लेकिन यह तो संक्रमण की बात है। सफाई हो जाएगी, निर्विकल्प समाधि में...।' विचार चले जाएंगे। निर्विकल्प समाधि का अर्थ है, जब ध्यान सध गया। जब अगर कोई व्यक्ति शांतिपूर्वक प्रयोग करता जाए, तो 292 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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