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धीरे-धीरे - धीरे कुछ करना नहीं होता, सिर्फ अपने विचारों के साक्षी भाव बने रहने से; साक्षी, द्रष्टा बने रहने से; देखते रहो – अलिप्त - ठीक है, विचार आते हैं, जाते हैं; देखते रहो, आने भी दो, जाने भी दो; न रोको, न धकाओ; रस मत लो; विरस, उदासी, तटस्थ; जैसे अपना कुछ लेना-देना नहीं; ऐसे देखते-देखते तुम पाओगे कि धीरे-धीरे अंतराल भी आने लगे। कुछ क्षण आ जाते हैं जब कोई विचार नहीं होता। उन्हीं अंतरालों में पहली दफा बदलियां छंटेंगी, सूरज की रोशनी उतरेगी। उन्हीं अंतरालों में पहली दफा निर्विकल्पता के थोड़े-थोड़े अनुभव होंगे – छोटे-छोटे, क्षणभंगुर – लेकिन वे क्षण बहुमूल्य हैं। जिन्होंने उन क्षणों को जान लिया, समझो कि उन्होंने स्वर्ग की यात्रा कर ली। थोड़ी देर को सही, लेकिन किसी और लोक में प्रवेश कर गये। फिर क्षण बड़े होने लगते हैं। धीरे-धीरे विचारों से छुटकारा होता चला जाता है | विचार दूर होते चले जाते हैं। और व्यक्ति अपने में लीन होता चला जाता है। इस लीनता को कहते हैं, निर्विकल्प । इस स्थिति को कहते हैं, समाधान, समाधि । और तब चिरसंचित शुभ-अशुभ कर्मों को भस्म करनेवाली आत्मरूप अग्नि प्रगट होती है।
'जिसके राग-द्वेष और मोह नहीं हैं तथा मन-वचन-काया रूप योगों का व्यापार नहीं रह गया है, उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मों को जलानेवाली ध्यानाग्नि प्रगट होती है।'
तुम कहां से आ रहे हो, नाम क्या है ? वह पुकारूं शब्द मत मुझको बताओ जो तुम्हारा आवरण है। पर कहो वह नाम
जो
वह पुकारूं, शब्द मत मुझको बताओ तुम्हारा आवरण है।
को को हम कहते हैं राम, किसी को कृष्ण, किसी को कुछ, किसी को कुछ। यह तो पुकारू नाम है। तुम जब आये थे, तो कोई नाम लेकर न आये थे। तुम जब आये थे, तब खाली, अनाम आये थे। तुम जब आये थे, तब कोई लेबल तुम पर लगा न था । न हिंदू थे, न मुसलमान थे, न जैन थे, न ईसाई थे। तुम जब आये थे, तब न सुंदर थे, न कुरूप थे। तुम जब आये थे, न बुद्ध थे, न बुद्धिमान थे। तुम जब आये थे, तब कोई विशेषण न लगा था । विशेषण - शून्य । तुम कौन थे तब ?
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ध्यान अग्नि है। क्योंकि जलाती है कचरे को । क्योंकि जलाती है व्यर्थ को, और असार को। ध्यान अग्नि है, क्योंकि जलाती है अहंकार को ध्यान मृत्यु जैसी है। क्योंकि मारती है तुम्हें —तुम जैसे अभी हो, और जन्माती है उसे-जैसे तुम होने चाहिए। तुम्हारे भविष्य को प्रगट करती है, तुम्हारे अतीत को विदा करती है। तुम्हें संसार की पकड़ के बाहर ले जाती है और परमात्मा की सीमा में प्रवेश देती है। ध्यान के इस द्वार से खोज करनी है अपने असली स्वरूप की ।
ध्यान में उसकी फिर से खोज करनी है। ध्यान में फिर उस जगह को छूना है, जहां से संसार शुरू हुआ है, जहां से समाज शुरू हुआ; जहां तुम्हें नाम दिया गया, विशेषण दिये गये; शिक्षा दी गयी, संस्कार दिये गये; तुम्हें एक रूप, ढांचा दिया गया; उस ढांचे के पार कौन थे तुम ? एक दिन मृत्यु आयेगी, यह देह छिन जाएगी। जब तुम्हारी चिता पर जलेगी यह देह, तो अग्नि इसकी फिकिर न करेगी - हिंदू हो, मुसलमान हो, जैन हो; सिक्ख, ईसाई, कौन हो? सुंदर हो, कुरूप, स्त्री हो, पुरुष; धनी हो, गरीब हो, अग्नि कोई चिंता न करेगी, बस भस्मीभूत ही कर देगी। मिट्टी तुम्हें अपने में मिला लेगी। तब तुम कौन बचोगे? जो तुमने इस संसार में जाना और माना था, वह सब तो फिर छिन जाएगा । उस सबके छिन जाने के बाद भी जो बच जाता है, वही हो तुम।
जिसको फूल और नक्षत्र ये कहते नहीं नाम जो असहाय, मर जाता उसी दिन
Jain Education International 2010_03
जिस दिवस हम भूमितल पर जन्म लेते हैं
झेन फकीर कहते हैं कि बताओ अपना मौलिक चेहरा — वह चेहरा, जब तुम पैदा नहीं हुए थे तब तुम्हारा था । वह चेहरा, जब तुम मर जाओगे तब भी तुम्हारा होगा - बताओ वह मौलिक चेहरा। अभी तो हम जो चेहरे रखे हुए हैं, ये सब ओढ़े हुए चेहरे हैं ।
तुम कहां से आ रहे हो,
नाम क्या है ?
त्वरा से जीना ध्यान है।
ध्यान में हम उसी की खोज करते हैं, जो जन्म के पहले था और मृत्यु के बाद भी होगा। तो ध्यान का अर्थ हुआ - किसी भ इन सारी समाज के द्वारा दी गयी संस्कार की पर्तों को पार कर के अपने स्वभाव को पहचानना है। स्वभाव को पहचान लेना ध्यान
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