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जिन सूत्र भाग : 2
की। तप भी करता है तो भी कारण वही पुराने अहंकार के होते | में। अंधेरी रात में। तुम्हारी पत्नी को, तुम्हारे पति को पता न हैं। पहले धन की अकड़ से चलता था कि लाखों हैं, अब इस | चले। उठ गये आधी रात. बैठ गये अपने बिस्तर पर, क्षणभर अकड़ से चलता है कि लाखों त्याग दिये। पहले यह अकड़ थी को उस एकांत में परमात्मा से अपने को जोड़ो। भीड़-बाजार का कि देखो मेरे पास कितना है, अब यह अकड़ है कि सुनो मैंने यह काम नहीं। किसी को बताना क्या है! किसी से कहना क्या कितना त्यागा है। अकड़ अपनी जगह कायम है। रस्सी जल | है? कहा कि हाथ से खो जाएगा। कहा कि गया। तीर निकला जाती है, अकड़ नहीं जाती। तो महावीर कहते हैं, ऐसा तप मत | धनुष से। फिर लौटेगा नहीं। करना, वह तप भी अशुद्ध है।
रोको, संभालो। पुण्य को छिपाओ। पाप को प्रगट करो। तेसिं तु तवो ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला।
क्योंकि पाप छूट जाए, अच्छा। पुण्य छिप जाए, बीज बने, गहरे जं नेवन्ने वियाणंति, न सिलोगं पवेज्जइ।।
में उतरे तुम्हारे अंतस्तल में जाए, अंतरधारा बहे, तुम्हारे रोएं-रोएं पूजा-सत्कार के लिए तप मत करना। कल्याणार्थी को तो ऐसे में. रग-रग तप करना चाहिए कि किसी को पता न चले। तप तो एकांत में 'ज्ञानमयी वायसहित तथा शील द्वारा प्रज्वलित तपोमयी हो। तप तो तुम्हारा भीतर है, भीतर हो।
अग्नि संसार के कारणभूत कर्मबीज को वैसे ही जला डालती है अब इसको समझना।
जैसे वन में लगी प्रचंड आग तृण-राशि को जला डालती है।' साधारणतः पाप हम एकांत में करते हैं, पुण्य भीड़ में करते हैं, इस ज्ञान की अग्नि को जलाओ। इस ज्ञान के यज्ञ को जलाओ। पाप हम छिपाते हैं, पुण्य हम बताते हैं। पाप अगर मजबूरी में इसे जलाना हो तो तथ्य को तथ्य के जैसा देखने का साहस करो। बताना भी पड़े, तो कम से कम बताते हैं। पुण्य अगर छिपाना भी इसे अगर जलाना हो तो व्यर्थ को बाहर फेंको, सार्थक को भीतर पड़े, तो कम से कम छिपाते हैं। मजबूरी में। पुण्य को हम संभालो। बुरे को कहो। कम से कम एक आदमी तो खोज लो, बढ़ा-बढ़ाकर बताते हैं, पाप को हम घटा-घटाकर छिपाते हैं। जिससे तुम अपना पूरा हृदय कह सको। और शुभ को मंजूषा पाप को हम छोटा बना-बनाकर भीतर रख लेते हैं। पुण्य को हम में-हृदय की मंजूषा में छिपाओ। शुभ का सार तुम्हारे प्राणों में बड़ा बनाकर आकाश में इंद्रधनुषों की भांति फैलाते हैं। बस जाए। और अशुभ जैसे ही तुम्हें पता चले, तत्क्षण उसे
महावीर कहते हैं, प्रक्रिया उलटी होनी चाहिए। पुण्य को भीतर निवेदन कर दो। गंगा में बहा दो। तो जन्मों का जो कारणभूत छिपाकर रख लेना, पाप को बाहर प्रगट कर देना। पाप को तो बीज है, जिसके कारण हम पैदा होते हैं-वासना-वह नष्ट हो बता देना, क्योंकि जो बता दो वह खो जाता है। पुण्य बताया, जाती है। या अहंकार, वह नष्ट हो जाता है। यह शांति जिसकी पुण्य खो जाएगा। पाप बताया, पाप खो जाएगा। जो बचाकर आदमी तलाश करता है, पहाड़ों पर न मिलेगी। पहाड़ों की शांति भीतर रखते हो, वही बीज बनता है। जो छिपाया, वही बढ़ेगा। क्षणभर का धोखा है। यह शांति तुम्हें भीतर खोजनी होगी! पाप छिपाओगे, पाप बढ़ेगा। पुण्य छिपाओगे, पुण्य बढ़ेगा। कितनी शांति! कितनी शांति!
अब तुम पर निर्भर है। गणित साफ है। अगर तुमने पाप समाहित क्यों नहीं होती यहां मेरे हृदय की क्रांति? छिपाया, तो पाप बढ़ता जाता है। वह तुम्हारी रंध्र-रंध्र में मवाद | क्यों नहीं अंतर-गुहा का अशंखल दुर्बाध्य वासी की तरह फैल जाता है। उसकी अंतःधारा तुम्हें पूरी तरह ग्रसित अथिर यायावर, अचिर में चिर प्रवासी कर लेती है। और पुण्य तुम प्रगट करते हो, वह खो जाता है हाथ । नहीं रुकता, चाह कर—स्वीकार कर—विश्रांति? से। पुण्य प्रगट हुआ, ऐसे जैसे कि सुगंध निकल गयी फूल से। मान कर भी, सभी ईप्सा, सभी कांक्षा फूल खाली रह गया। गंध गयी।
जगत की उपलब्धियां सब हैं लभानी भ्रांति। महावीर कहते हैं उलटा करो, थोड़े समझदार बनो। छिपाओ | कितनी शांति! कितनी शांति! पुण्य को, किसी को पता न चले। जीसस ने कहा है, एक हाथ से समाहित क्यों नहीं होती यहां मेरे हृदय की क्रांति ? दो, दूसरे हाथ को पता न चले। प्रार्थना करो एकांत में, अकेले पहाड़ों पर जो शांति है, बड़ी गहन है। पहाड़ों की है, तुम्हारी
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