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जिन सूत्र भाग: 2
फूंक डालें जो मेरी किश्ते-होश
सामायिक होती है।' और जो मेरी चेतना की फसल को जला डालें, ऐसे गर्म चुंबन यह सूत्र बहुत महत्वपूर्ण है। और थोड़ी देर सही!
'जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके।' रूह मखवस्ता है तपां कर लें
महावीर ने मौन पर बहुत जोर दिया है। ऐसा किसी ने इतना और आत्मा ठंडी पड़ी जाती है, थोड़ी गरमा लें।
जोर नहीं दिया मौन पर। जोर सभी ने दिया है, मौन इतना आज की रात और बाकी है।
महत्वपूर्ण है कि कोई भी उसे छोड़ तो नहीं सकता, लेकिन जैसा कल तो जाना ही है सफर पे मझे
जोर महावीर ने दिया है, वैसा किसी ने नहीं दिया। महावीर ने मरते-मरते दम तक आदमी के मन में ऐसा ही चिंतन चलता है। मौन को साधना का केंद्र बनाया। इसलिए अपने संन्यासी को
क्षणभंगुर जिंदगी को देखकर आदमी जागता नहीं, क्षणभंगुर | मुनि कहा। बुद्ध ने अपने संन्यासी को भिक्षु कहा। हिंदुओं ने जिंदगी को देखकर और जोर से पकड़ लेता है। वह कहता है, अपने संन्यासी को स्वामी कहा। अलग-अलग जोर है। हिंदुओं कल तो छूट जाएगा, तो आज भोग लें। कल तो छीन लिया ने स्वामी कहा, क्योंकि उन्होंने कहा कि जो आत्मा को जानने
तो आज भोग लें। उसे यह खयाल नहीं आता कि जो लगा, वही अपना मालिक है-स्वामी। बुद्ध ने भिक्षु कहा, छिन ही जाएगा, वह छिना ही हुआ है। वह छिन ही चुका है। उन्होंने कहा जिसने अहंकार को पूरा गिरा दिया, इतना गिरा दिया वह कभी मिला ही नहीं। वह बस सपना है। जो टूट जाएगा, | कि कहा कि मैं भिक्षु हूं, कैसा स्वामी! जिसने अस्मिता जरा-भी वह सपना है। थोड़ी देर और आंख बंद करके देख लो, क्या सार न रखी, अहंकार जरा-भी न रखा, भिक्षापात्र लेकर खड़ा हो है! जिनके पास थाड़ा भी बुद्धिमत्ता है, वे कहेंगे जो सुबह टूट गया। जिसने सम्राट होने की घोषणा न की। जिसने सब । जाएगा, वह हमने अभी छोड़ा। जो कल छूट जाएगा, वह हमने घोषणाएं वापिस ले लीं, जिसने कहा मैं कुछ भी नहीं हूं। यही आज छोड़ा। इसीलिए तो ज्ञानी जीते-जी मर जाता है। वह | अर्थ है भिक्षु का। कहता है. जब कल मरना है, हम आज मर गये। अब जीने में महावीर ने अपने संन्यासी को मनि कहा। मनि का अर्थ है, जो अर्थ न रहा। संन्यास का यही अर्थ है-जीते-जी मर जाना। मौन हो गया। जिसने वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग जान लेना कि ठीक है, मौत तो होगी, तो हो गयी। अब हम ऐसे किया। क्यों महावीर ने इतना जोर दिया मौन पर, इसे खयाल में जीएंगे जैसे हम नहीं हैं। उठेंगे, बैठेंगे, चलेंगे, लेकिन वह जो लें। मनुष्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात बातचीत है, भाषा है, होने का दंभ था, अब न रखेंगे। वह मौत तो मिटायेगी ही, हम | बोलने की क्षमता है। पशु हैं, पक्षी हैं, पौधे हैं, हैं तो, पर भाषा ही क्यों न मिटा दें?
नहीं है। बोल नहीं सकते। इसलिए पशु-पक्षी-पौधे और ध्यान रखना. जो स्वयं उस दंभ को मिटा देता है. उसके अकेले-अकेले हैं. उनका कोई समाज नहीं है। समाज के लिए सामने मौत हार जाती है। फिर मौत को मिटाने को कुछ बचता ही भाषा जरूरी है। आदमी का समाज है। आदमी सामाजिक प्राणी नहीं। इसलिए मौत संसारी को मारती है, संन्यासी को नहीं। है, क्योंकि आदमी बोल सकता है। बोले बिना जुड़ोगे कैसे संन्यासी अमर है। संसारी मरता है, हजार बार मरता है। किसी से? जब बोलते हो, तभी सेतु फैलते हैं और जोड़ होता संन्यासी एक बार मरता है। संसारी हजार बार मरता है, | है। तो भाषा का अर्थ हुआ, व्यक्ति-व्यक्ति के बीच जोड़नेवाले जबर्दस्ती मारा जाता है। संन्यासी स्वेच्छा से मरता है, एक बार | सेतु। भाषा मनुष्य को समाज बनाती है। समाज देती है। स्वयं ही जीवन को उतारकर रख देता है कि हो गयी बात, ठीक | समुदाय देती है। है, जो कल छिनना है वह मैं स्वयं छोड़े देता हूं। संन्यास स्वेच्छा महावीर ने कहा, मौन हो जाओ। अर्थ हुआ, टूट जाओ, सारे से स्वीकार की गयी मृत्यु है।
सेतु तोड़ दो दूसरों से। बोलने के ही तो सेतु हैं, बोलने के द्वारा 'जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके वीतराग जुड़े हो, तोड़ दो बोलने के सेतु, अकेले हो जाओ। बोलना भाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसको परम समाधि या छोड़ते ही आदमी अकेला हो जाता है, चाहे बाजार में खड़ा हो।
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