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________________ समता ही सामायिक है यह बात। पहले तो उन्हें ध्यान करवाओ, पहले तो उन्हें ध्यान पर सवार हैं, दोनों कहीं जा रहे हैं, दोनों का कोई लक्ष्य है। तीर पकड़ाओ, पहले तो बाहर से छुड़ाओ, भीतर की यात्रा पर प्रत्यंचा पर चढ़ा है, अभी तरकस में नहीं पहुंचा। हम तो बाहर चलाओ, भीतर की प्रवृत्ति दो, फिर एक दिन जब भीतर की की ही सोच-सोचकर मरे जाते हैं। महावीर कहते हैं, एक दिन प्रवृत्ति सध जाए, रमने लगें, बाहर का स्मरण भूल जाए और भीतर सोचना भी छोड़ देना। हम तो इंद्रियों के विषय-सुख भीतर का रस आने लगे, तब उनको कहना, चौंकाना कि अब सोच-सोचकर विदग्ध होते रहते हैंइसे भी छोड़ो। क्योंकि यह भी अभी बाहर है। भीतर होकर भी आज की रात और बाकी है बाहर है। तुम इससे भी ज्यादा भीतर हो। तुम सिर्फ साक्षीभाव कल तो जाना ही है सफर पे मुझे हो। जिसको पता चल रहा है ध्यान का आनंद, वही हो तुम। जिंदगी मुंतजिर है मुंह फाड़े ध्यान तुम नहीं हो। जिंदगी, खको-खून में लथड़ी है कोई संभोग में सुख ले रहा है। उसकी भूल क्या है? वह | आंख में शोला-हाय तुंद लिये साक्षी को भोक्ता समझ रहा है। फिर कोई समाधि में सुख लेने दो घड़ी खद को शादमां कर लें लगा। उसकी भूल क्या है? वही भूल है। भूल वही की वही आज की रात और बाकी है है। वह अब फिर साक्षी को भोक्ता समझ रहा है। संभोग हो कि कल तो जाना ही है सफर पे मुझे समाधि, तुम दोनों के पार हो। तुम कुछ ऐसे हो कि तुम सदा पार मरते-मरते तक आदमी सोचता है, कल तो जाना है। ही हो। कुछ भी घटे-धन मिले कि ध्यान मिले, पद मिले कि दो घड़ी खुद को शादमां कर लें परमात्मा मिले, तुम सदा पार हो। तुम्हारा होना ट्रांसेंडेंटल है, थोड़ा और मजा ले लें, थोड़ा और सुख लूट लें, थोड़ी देर और भावातीत है, विचारातीत है। तुम साक्षी हो। तुम जो देखते हो, सपनों में खो लें, थोड़ी देर और इस रस की भ्रांति में अपने को उसी से अन्य हो जाते हो। जो दृश्य में बन जाता है तुम्हारे लिए, भरमा लें, थोड़ी देर और माया का राग-रंग चले। तुम उसी के द्रष्टा हो जाते हो।। | आज की रात और बाकी है इसलिए कोई भी अनुभव तुम्हारा स्वभाव नहीं। सब अनुभव कल तो जाना ही है सफर पे मुझे तुम्हारे लिए दृश्य हैं। आकाश में चमकती बिजली देखो, या | दो घड़ी खुद को शादमां कर लें आंख बंद करके ध्यान की गहराइयों में कौंधते हए प्रकाश देखो, आज की रात और बाकी है। बराबर है। बाहर खिले फूल देखो, कि भीतर ध्यान की अंतिम एक पैमाना-ए-मये-सरजोश गहराइयों में सहस्रार का खिलता कमल देखो, एक ही बात है। लुत्फे-गुफ्तार, गर्मी-ए-आगोश लेकिन, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उस सहस्रार को पाना मत। मैं | बोसे-इस दर्जा आतशी बोसे कह रहा हूँ, बाहर के फूल से तो भीतर का फूल बड़ा कीमती है।। फूंक डालें जो मेरी किश्ते-होश चलो बाहर का फूल इसी आशा में छोड़ो कि भीतर का फूल रूह मखवस्ता है तपां कर लें खिले। जिस दिन भीतर का फूल खिलेगा, उस दिन तुमसे आज की रात और बाकी है आखिरी बात भी कही जा सकेगी कि अब इसे भी छोड़ो। अभी एक पैमाना-ए-मये सरजोश और भी एक है छिपा—उसके भी पार–वही तुम हो। जो सदा एक और तेज शराब का प्याला पी लें। पार है, जिसका स्वभाव ही पार होना है, वही तुम हो। लुत्फे-गुफ्तार गर्मी-ए-आगोश तो महावीर कहते हैं प्रवृत्ति-ध्यान को भी, सामायिक को और थोड़ी देर प्रिय से बातें कर लें, आलिंगन कर लें। भी। निवृत्ति तो तब होगी जब ध्यान का भी त्याग हो जाएगा। बोसे-इस दर्जा आतशी बोसे इसका अर्थ हुआ, संसारी तो प्रवृत्त है ही, संन्यासी भी प्रवृत्त है। और गर्म चुंबन-आग्नेय चुंबन। और थोड़ी देर अपने को दिशा अलग-अलग, लक्ष्य भिन्न-भिन्न, पर दोनों ऊर्जा के अश्व | गरमा लें। 211 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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