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जिन सूत्र भाग : 2
नहीं है अब, पद की आकांक्षा नहीं है अब, अब तो स्वयं को पाने अभी मिट्टी-पत्थर नहीं छूटे, हमसे ध्यान कैसे छूटेगा? हमसे की आकांक्षा है, स्वयं को पाने की अभीप्सा है, लेकिन वह भी धन नहीं छूटता, ध्यान कैसे छूटेगा ? ध्यान तो हमें पता ही नहीं, अभीप्सा है। इसलिए महावीर कहते हैं, जब तक सिद्ध न हो | अभी मिला ही नहीं, छूटने की तो बात ही दूर है! लेकिन ध्यान जाओ, तब तक रुकना मत, चलते ही जाना। जब ऐसी घड़ी आ | की परिपूर्णता तभी है, जब ध्यान भी व्यर्थ हो जाता है। जाए कि बाहर तो छूट ही जाए, भीतर भी छूट जाए क्योंकि | ध्यान तभी तक अर्थपूर्ण है, जब तक प्रवृत्ति शेष है। ध्यान बाहर और भीतर साथ-साथ जुड़े हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू औषधि है। अंग्रेजी का शब्द ध्यान के लिए है—मेडिटेशन। हैं। जब बाहर पूरी तरह छूटेगा, तो भीतर भी पूरी तरह छूटेगा; वह शब्द बड़ा अर्थपूर्ण है। उसकी मूल धातु वही है जो अंग्रेजी
और जब तक भीतर का कुछ बचा है तब तक बाहर का भी कुछ के दूसरे शब्द मेडिसिन की है। ध्यान औषधि है। बीमार जब दबे-छिपे बचा रहेगा—जब दोनों ही छूट जाएं, सिक्का हाथ से तक है, तब तक औषधि की जरूरत है। जब स्वस्थ हो गये, तो गिर जाए।
| औषधि छूट जाती है। अगर स्वस्थ होने के बाद भी औषधि जारी महावीर ने आत्मा के तीन रूप कहे-बहिरात्मा ः संसार की रही, तो औषधि खुद ही रोग हो गयी, उपाधि हो गयी। छूटनी ही तरफ प्रवृत्ति; अंतरात्मा अपनी तरफ प्रवृत्ति; और परमात्माः चाहिए। ध्यान तो छुड़ाने को है, कि बाहर की दौड़ छूट जाए। प्रवृत्तिशून्यता, निवृत्ति। केवल परमात्मा निवृत्त है। महावीर को इसलिए भीतर की यात्रा है। जब बाहर की दौड़ बिलकुल छूट उनके भक्तों ने भगवान कहा है। महावीर के दर्शनशास्त्र में | गयी, तो भीतर की यात्रा किसलिए? बीमारी ही चली गयी, स्रष्टा की तरह भगवान के लिए कोई जगह नहीं है। सृष्टि | औषधि भी चली जाती है। अनादि है, किसी ने कभी बनायी नहीं। सष्टि का कोई मालिक, तो इसे खयाल रखना। ध्यान की अंतिम अवस्था जिसको कोई परमात्मा, कोई नियंता नहीं है। फिर महावीर के भक्तों ने पतंजलि ने समाधि कहा है, उस अंतिम अवस्था में ध्यान का भी महावीर को भगवान कहा, और महावीर ने कभी इनकार भी नहीं त्याग हो जाता है, परित्याग हो जाता है। और संन्यास की अंतिम किया किसी को कि मुझे भगवान मत कहो। भगवान को इनकार अवस्था में संन्यास भी व्यर्थ हो जाता है। वीतरागता की अंतिम करके फिर उन्होंने कैसे स्वीकार कर लिया स्वयं को भगवान अवस्था में वीतरागता भी व्यर्थ हो जाती है। यह सब साधन है। पुकारे जाना?
| साध्य के आते ही साधन छूट जाते हैं। महावीर के विचार-जगत में भगवान का दूसरा ही अर्थ है। दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक तो वे हैं, जो कहते हैं अगर उसका कोई संबंध सृष्टि के बनाने से नहीं है। नियंत्रण से नहीं | ध्यान छोड़ना ही है, तो करें क्यों? एक वे, जो कहते हैं अगर है। भगवान का अर्थ है, निवृत्ति की परम दशा। जिसकी सब ध्यान किया, इतनी मुश्किल से साधा, सम्हाला, जन्मों की प्रवृत्ति जाती रही। धन तो छोड़ा ही, ध्यान भी छोड़ा। पद तो तपश्चर्या से, तो छोड़ेंगे नहीं। दोनों गलत हैं। ये ऐसे ही लोग हैं छोड़े ही, बाहर की दौड़ तो छोड़ी ही, भीतर की दौड़ भी जो कहते हैं, हम सीढ़ी चढ़ेंगे तो छोड़ेंगे नहीं। लेकिन सीढ़ी गयी-दौड़ ही गयी। जो सब भांति परम अवस्था में लीन हो छोड़ने के लिए है। चढ़ते जाओ, छोड़ते जाओ। और अगर
अब कहीं जाने को न रहा. कछ पाने कोन सीढी पर रुक गये, तो छत पर न पहंचोगे। सीढी के आखिरी पैर रहा, जो पाना था पा लिया, जहां जाना था पहुंच गये, जो अपने पर भी रुक गये, तो भी छत पर पहुंचने से रुक गये। छोड़नी ही स्वभाव में लीन हो गया, स्वभाव की इस परम दशा को महावीर पड़ेगी सीढ़ी। सीढ़ी गुजर जाने को है। लेकिन दूसरे हैं तर्क से ने कहा, भगवान, भगवत्ता। और यही निवृत्ति की दशा है। भरे लोग, वे कहते हैं, अगर छोड़ना ही है, तो कौन झंझट उठाये
साधारणतः हम बाहर का चिंतन करते हैं। भीतर का चिंतन तो चढ़ने की! तो हम यहां नीचे ही भले हैं। अभी ही छोड़े हुए हैं। हमने किया नहीं इसलिए हमें यह तो समझ के ही बाहर मालूम कृष्णमूर्ति निरंतर अपने शिष्यों को कहते रहे हैं, ध्यान व्यर्थ है। होगा कि ऐसी भी कोई घड़ी आती है, जहां भीतर का चिंतन भी ठीक कहते हैं, सौ प्रतिशत ठीक कहते हैं। लेकिन शायद जिनसे
छूट जाता है। हमसे तो बाहर का चिंतन भी नहीं छूटा। हमसे तो कहते हैं, वे ठीक नहीं हैं। जिनसे कहते हैं, उनकी समझ के बाहर 210 Jain Education International 2010_03
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