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________________ समता ही सामायिक वह नदी में बहेगा कैसे, तैरेगा कैसे ? किनारा तो छोड़ना होगा। ढलान पर, चिकनी मिट्टी पर तुम फिसल चले। एक बार हाथ से और जो इस किनारे को न छोड़े, वह उस किनारे की तरफ जाएगा | जंजीरें भर छूट जाएं। लेकिन जंजीरों को तुमने समझा है कैसे? बाहर को तुम अगर बहुत पकड़े हो, तो भीतर जाने की | आभूषण। तुम जंजीरों में लेते हो गौरव। तुम मानकर चलते हो चेष्टा व्यर्थ हो जाएगी। कि जंजीरें ही जीवन का सब कुछ हैं, सार हैं। कितना बड़ा अनेक लोग मेरे पास आते हैं. वे कहते हैं. ध्यान करना है। मकान है। कितना सोने का अंबार है। कितनी बडी की पर तम करते भी हैं, कहते हैं, लेकिन होता नहीं। ध्यान तो करना चाहते | बैठे हो! तुमने कारागृह को महल समझ रखा है। तो तुम छोड़ोगे हैं वे, लेकिन बाहर से संबंध शिथिल नहीं किये हैं। कहते हैं कैसे! पहले बाहर से थोड़े हाथ खाली करने होंगे। मझधार में उतरने का मजा लेना है, डुबकी लगानी है, मगर तिनके और सोने में, शत्रु और मित्र में समभाव रखना देखता हूं, किनारों की जंजीरों को पकड़े रुके हैं। मझधार में जाने | सामायिक है।' की चेष्टा है, आकांक्षा है, किनारे को छोड़ने की हिम्मत और समभावो सामइयं, तणकंचण-सत्तुमित्तविसओ त्ति। समझ नहीं। ध्यान कैसे होगा? ध्यान तो अंतर्यात्रा है। निरभिस्संगं चित्तं, उचियपवित्तिप्पहाणं च।। सामायिक है। 'राग-द्वेष एवं अभिष्वंग रहित उचित प्रवृत्ति प्रधान चित्त को तो महावीर कहते हैं, बाहर से थोड़े हाथ शिथिल करो, खाली सामायिक कहते हैं।' करो। बाहर से थोड़ी आंख बंद करो। अगर बाहर मित्र है, तो | 'राग-द्वेष से रहित।' न कोई अपना, न कोई पराया, न किसी बाहर की याद आयेगी; अगर बाहर शत्रु है, तो बाहर की याद से मोह, न किसी से क्रोध। आयेगी। खयाल रखना, मित्र ही नहीं बांधते, शत्रु भी बांध लेते | 'राग-द्वेष रहित, अभिष्वंग रहित उचित प्रवृत्ति प्रधान चित्त को हैं। अकसर तो ऐसा होता है कि मित्रों से भी ज्यादा शत्रुओं की सामायिक कहते हैं। बाहर नहीं जा रहा जो चित्त, भीतर जा रहा याद आती है। अकसर तो ऐसा होता है कि जिससे तुम्हें प्रेम है, जो चित्त, उसे सामायिक कहते हैं। ध्यान रखना, यहां महावीर उसकी चाहे तम विस्मति भी कर दो. लेकिन जिससे तम्हें घणा है के सत्र का बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है-प्रवत्ति प्रधान चित्त। एक और क्रोध है, उसे तुम भूल ही नहीं पाते। फूल तो भूल भी जाएं, तो प्रवृत्ति है बाहर की तरफ-सांसारिक, वह भी प्रवृत्ति है। कांटों को कैसे भूलोगे? चुभते हैं। अपनों को तो तुम विस्मरण महावीर कहते हैं, भीतर की तरफ आना भी प्रवृत्ति है। वह भी भी कर सकते हो, दुश्मनों को कैसे विस्मरण करोगे? और यह यात्रा है। वहां भी बल चाहिए। वहां भी विधायक बल चाहिए। बाहर के मित्र और बाहर के शत्रु, बाहर का धन और पद खींचते | तो महावीर भीतर आने को निवृत्ति नहीं कहते; उसे भी प्रवृत्ति हैं बाहर की तरफ। और भीतर तुम जाना चाहते हो। कहते हैं। बाहर जाना प्रवृत्ति है, भीतर आना प्रवृत्ति है। हां, जो लोग कहते हैं हम बड़े बेचैन हैं, शांति चाहिए। और यह भीतर पहुंच गया, वह निवृत्ति को उपलब्ध होता है। तो संन्यासी सोचते ही नहीं कि बेचैनी का कारण जब तक न मिटाओगे, शांति निवृत्त नहीं है, प्रवृत्त ही है। नयी प्रवृत्ति है उसकी, बाहर की तरफ कोई आकस्मिक थोड़े ही मिलती है! शांति कोई अनायास नहीं है। तीर उसका बाहर की तरफ नहीं जा रहा है, भीतर की आकाश से थोड़े ही बरस पड़ती है! शांति उसे मिलती है जिसने तरफ जा रहा है, लेकिन तीर अभी चढ़ा है, प्रत्यंचा अभी खिंची अशांति के कारणों से अपने हाथ अलग कर लिये। वे कारण हैं है। सिद्ध निवृत्त है। जो पहुंच गया, जो कहीं भी नहीं जा रहा है, बाहर के द्वंद्व में चुनाव करना। जो अपने घर आ गया, जिसने अपने केंद्र को पा लिया, वह कृष्णमूर्ति कहते हैं, 'च्वाइसलेस अवेयरनेस।' वही महावीर निवृत्त है। की सामायिक है। चनावरहित बोध। निर्विकल्प जागरूकता। न इसलिए साधारणतः हम संन्यासियों को निवृत्त कहते हैं, वह यह मेरा है, न वह मेरा है। न यह, न वह। फिर बाहर से हाथ गलत है। संन्यासी निवृत्त नहीं है। संन्यासी ने नई प्रवृत्ति खोजी। छूटे, फिर तुम चले भीतर। फिर तुम सरके भीतर। फिर तो तुम | ऊर्जा का नया प्रवाह खोजा। नयी यात्रा, नयी तीर्थयात्रा, पैरों के रोकना भी चाहोगे कि अब कैसे रुकें, तो न रुक पाओगे। जैसे लिए नया लक्ष्य, नया साध्य, नये क्षितिज। धन की आकांक्षा 209 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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