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________________ प्यासी है हर गागर दूग की गंगाजल ढलकाता चल कोई नहीं पराया, सारी धरती एक बसेरा है इसकी सीमा पश्चिम में तो मन का पूरब डेरा है श्वेत बरन या श्याम बरन हो सुंदर या कि असुंदर हो सभी मछलियां एक ताल की क्या मेरा क्या तेरा है गलियां - गांव गुंजाता चल पथ-पथ फूल बिछाता चल हर दरवाजा राम- दुवारा सबको शीश झुकाता चल हर दरवाजा राम-दुवारा सबको शीश झुकाता चल – अगर प्रेम किसी से किया तो राम दुवारा खुला। जहां प्रेम ने दस्तक दी, वहीं राम दुवारा खुला। प्रेम से कभी बचना मत। प्रेम में उतरना । प्रेम से डरना मत । प्रेम बड़ी पीड़ा देगा, प्रेम जलायेगा, प्रेम अग्नि बन जाएगा, लेकिन अग्नि से ही गुजरकर कोई कुंदन बनता है, कोई शुद्ध स्वर्ण बनता है। प्रेम की अग्नि से घबड़ाना मत, भागना मत, अन्यथा अधकचरे, अधूरे, मिट्टी से भरे रह जाओगे । तो मैं यह नहीं कहता कि प्रेम तुम्हें सुख ही सुख देगा । प्रेम कोई फूलों-बिछी सेज है, ऐसा मैं नहीं कहता। प्रेम बड़ी पीड़ा की डगर है। लेकिन उससे गुजरना जरूरी है। और उससे | गुजरकर ही तुम प्रार्थना के योग्य बनोगे, प्रार्थना के लिए परिपक्व बनोगे। जैसे ही कोई व्यक्ति किसी के प्रेम में डूबा, स्वाद मिलना शुरू होता है । बहुत पर्दों के पार से परमात्मा की पहली झलक | मिलनी शुरू होती है। इस पृथ्वी पर प्रेम से ज्यादा परमात्मा की झलक देनेवाली कोई अनुभूति नहीं है । में प्रेम इस जगत में उस जगत की किरण है। प्रेम इस अंधेरी रात दूर परमात्मा का चमकता हुआ सितारा है। बहुत दूर है, लेकिन इस अंधेरे को पार करके एक किरण आ रही है। तुम उस किरण का सहारा पकड़ लो। ऐसा तो मैंने कभी नहीं देखा कि | प्रेम से कोई तृप्त हुआ हो। इसलिए डर कुछ भी नहीं है। प्रेम तुम्हें और अतृप्त करेगा। नये शिखरों की चुनौती मिलेगी। नयी ऊंचाइयां खोजने के भाव मिलेंगे। प्रेमियों में जो संघर्ष है, उसका कारण तुमने कभी सोचा ? प्रेमियों में सदा संघर्ष बना रहता है, उसका कुल कारण इतना है कि हर प्रेमी यह कोशिश कर रहा है कि दूसरा परमात्मा की तरह Jain Education International 2010_03 प्रेम हे द्वार हो। यही संघर्ष है। जहां भी दूसरा परमात्मा से थोड़ा नीचे पड़ता है, कलह शुरू हो जाती है। पति भी यही चेष्टा कर रहा है कि पत्नी परमात्मरूप हो, दिव्य । जैसे ही उससे नीचे पड़ती है, अड़चन होती है। पत्नी भी यही सोच रही है कि पति परमात्मा जैसा हो। दोनों की खोज सही है। और इसीलिए संघर्ष है। धीरे-धीरे यह अनुभव में आता है कि आदमी की सीमा है। तब नाराजगी चली जाती है। तब यह खयाल उठता है कि हम खोज ही गलत जगह रहे हैं। हमें थोड़े और ऊंचाई पर आंख उठानी होगी । आदमी के पार देखना होगा। या आदमी के गहरे में देखना होगा । तुमने यह भी कभी खयाल किया कि जैसे ही तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो, तुम वही नहीं रह जाते जो तुम अब तक थे। तुम्हारे भीतर कुछ नया उठने लगता है, कोई पंख खोलने लगता है। कोई आकाश की तरफ उड़ने के लिए तत्पर हो जाता है। तुमने कभी खयाल किया कि प्रेम के साथ, जो भी श्रेष्ठ भावनाएं हैं अचानक तुममें जगने लगती हैं। घृणा के साथ जो-जो अशुभ है, तुम्हारे भीतर घना होने लगता है। घृणा उठी कि हिंसा उठी । घृणा उठी कि क्रोध उठा । घृणा उठी कि तुम मरने-मारने को, मिटाने को तत्पर हुए। प्रेम उठा कि सृजन उठा। प्रेम उठा कि तुम बनाने को संवारने को, शृंगार करने को राजी हुए। इधर प्रेम उठा कि शुभ भावनाओं का जन्म उसके साथ-साथ होने लगता है। प्रेम जितना ऊंचा उड़ता है, उतनी ही शुभता भी तुम्हारे भीतर ऊंची उठती है। जितने तुम प्रेम में जाते हो, उतने ही तुम दिव्य होने लगते हो। नया-नया प्रेम तुम्हारे चेहरे पर एक ऐसी गरिमा दे जाता है, जो तुमने पहले कभी न जानी थी। एक आभामंडल, एक ऊर्जा, एक नया प्रकाश तुम्हारे चेहरे को घेर लेता है । तुम्हारी चाल बदल जाती है। तुम्हारी चाल में मीरा का थोड़ा नाच आ जाता है। कि वह परम प्रेमी की खोज पर थी, इसलिए पूरा नाच तो नहीं हो सकता, लेकिन थोड़ी घूंघर तो बजती है। रुक-रुककर बजती है। थोड़ी घूंघर तो बजती है। पायल की वैसी धुन नहीं होती कि आकाश को गुंजा दे, लेकिन आंगन को तो गुंजाती है। छोटा-सा कोने में दीया तो जलता है । महासूरज नहीं निकलता, जैसा कबीर कहते हैं कि हजार-हजार सूरज पैदा हो रहे हैं, लेकिन एक छोटा-सा दीया तो जलता है। दीया भी तो सूरज का ही प्रतिनिधि For Private & Personal Use Only 155 www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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