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________________ _जिन सूत्र भाग : 2 है। छोटा प्रतिनिधि सही। बहुत क्षुद्र सही। लेकिन सूरज की | पहुंचे, परमात्मा तक पहुंचे। किरण में जो है, वही तो दीये की किरण में भी है। स्वभाव तो रोज नया असंतोष जगाओ। धर्म संतोष नहीं है, परम असंतोष एक है। है। परम के लिए असंतोष है। क्षुद्र से राजी मत हो जाओ। जब नहीं कोई सागर नहीं उमड़ने लगता, लेकिन बूंद तो बरसती | तक विराट ही न मिल जाए, तब तक ठहरना मत। तब तक है। बूंद में वही है, जो सागर में है। जिसने बूंद को पहचाना, वह | | पड़ाव बहत जगह बनाने होंगे-मील के कई पत्थर कभी सागर को भी खोज ही लेगा। जिसने बूंद को चखा, वह | मिलेंगे-रुक जाना, रात ठहर जाना, लेकिन सुबह चल पड़ने कितने दर, कितने दिन तक सागर से वंचित रहेगा? जैसे-जैसे की तैयारी रखना। घर मत बनाना कहीं। विश्राम कर लेना, प्रेम की झलक मिलनी शुरू होती है, तुम्हारी प्रेम की आशा विराम कर लेना, लेकिन ध्यान रखना, विश्राम सुबह चलने की बढ़नी शुरू होती है। तैयारी है। अभाव से राजी मत होना। अनुपस्थिति से राजी मत होना। प्रेम के मैं पक्ष में हूं। क्योंकि मेरे देखे प्रेम ही सेतु है दृश्य और अभाव नर्क है। भावात्मक बनो। विधायक बनो। प्रेम नहीं है, अदृश्य के बीच, शरीर और अशरीरी के बीच, पदार्थ और इससे राजी मत हो जाना। तोड़ो चट्टानें हृदय की! बहने दो झरना परमात्मा के बीच। प्रेम का! सांसारिक, तो सांसारिक सही। शरीर का, तो शरीर का गीत आकाश को धरती का सुनाना है मुझे सही। शुरू तो करो। कोई पहले कदम पर ही तो स्वर्ग नहीं पहुंच | हर अंधेरे को उजाले में बुलाना है मुझे जाता है। लेकिन पहला कदम तो उठाओ। लाओत्सू ने कहा है, | फूल की गंध से तलवार को सर करना है एक-एक कदम चलकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। | और गा-गा के पहाड़ों को जगाना है मुझे एक कदम तो उठाओ। जब तुम्हारे हृदय में प्रेम नहीं, तुम पहाड़ हो। चट्टान...और प्रेम से थोड़े से लोग राजी हो जाते हैं। बहुत लोग प्रेम के चट्टान...और चट्टान...। झरने को रोके बैठे हो। जैसे ही अभाव में राजी हो जाते हैं। जो प्रेम के अभाव में राजी हो गये. वे तम्हारे भीतर प्रेम उमगा. किरण उतरी. टटी चट्टानें, निर्झर बहा। तो अंधेरी रात में भटक गये। जो प्रेम से राजी हो गये, वे दीये को गीत आकाश को धरती का सुनाना है मुझे ही लेकर बैठे रह गये, जबकि सरज उनका हो सकता था। ये वृक्ष क्या करते हैं जब खिल जाते हैं? ये गीत धरती का है कताअ एक जलवे पर। आकाश को सुना देते हैं। ये धरती की खबर आकाश को दे देते शौक अभी तंगदस्त है शायद हैं कि धरती ही मत समझ लेना, फूल भी हैं। आकाश को भी जो एक ही जलवे से राजी हो गया और सोचा कि काफी है, मात कर देनेवाले फूल हैं धरती में छिपे। मिट्टी में सुगंध भी है, उसकी प्यास, उसका प्रेम, उसकी अभीप्सा तंगदस्त है। बड़ी रंग भी है। इंद्रधनुषी रंग भी है। कृपण है। कंजूस है। झोली भी फैलायी तो पूरी न खोलकर फूल धरती की भेंट है आकाश को। जब कोई मनुष्य खिलता फैलायी। | है तो सीमा असीम से बातें करती है। क्षुद्र विराट से बातें करता है कताअएक जलवे पर | है। तब बूंद सागर से बात करती है, संवाद करती है। धरती का एक जलवे को काफी मान लिया! प्रेम की एक छोटी-सी गीत, सीमा का गीत, बूंद का गीत! ज्योति को काफी मान लिया! गीत आकाश को धरती का सुनाना है मुझे शौक अभी तंगदस्त है शायद। हर अंधेरे को उजाले में बुलाना है मुझे लेकिन मेरे देखे सबसे अभागे वे हैं जिन्होंने प्रेम के अभाव में | और जब तक तुम प्रेम को दाबे पड़े हो, तब तक तुम अंधेरे में संतोष कर लिया। उसके बाद उनका नंबर है, जिन्होंने प्रेम से पड़े हो। जागो! जलाओ दीया प्रेम का। मेरे मन में प्रेम का संतोष कर लिया। सौभाग्यशाली तो वे हैं, जिन्होंने अभाव को परिपूर्ण स्वीकार है। जिन्होंने प्रेम की निंदा की, उन्होंने तुम्हें तो टिकने न दिया, प्रेम को भी न टिकने दिया। प्रार्थना तक विषाक्त कर दिया है। जिन्होंने प्रेम की निंदा की, उन्होंने तुम्हें प्रेम 1156 Jair Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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