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जिन सूत्र भाग: 2
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गुलाब का फूल खिला। तुम कहते हो, सुंदर है। तो जो जैसा मन का अभाव, ध्यान। अ-मन की अवस्था, ध्यान। है उससे तुम हट गये। तुमने अपने मन को आरोपित किया। यह 'ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है। और ध्यान से सब कर्मों की सुंदर का खयाल तुम्हारा है। गुलाब के फूल को कुछ भी पता निर्जरा होती है।' नहीं है कि सुंदर है, असुंदर है। आदमी हट जाए पृथ्वी से तो भी सुनो, महावीर कहते हैं, ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा होती गुलाब का फूल खिलेगा। गेंदे का फूल भी खिलेगा। लेकिन न है। जो तुमने किये हों पाप-पुण्य अनंत-अनंत जन्मों में, क्षणभर तो गेंदे का फूल असुंदर होगा, न गुलाब का फूल सुंदर होगा। न के ध्यान से मिट जाते हैं। क्यों, ऐसा कैसे होता होगा? यह गेंदे का फूल कम सुंदर होगा, न गुलाब का फूल ज्यादा सुंदर गणित कुछ समझ में नहीं आता। क्योंकि जनम-जनम तक पाप होगा। घास के फूल भी खिलते रहेंगे। सभी एक जैसे होंगे। किये-चोरी की, बुराई की, झूठ बोले, हत्या की, हत्या का मनुष्य के हट जाते ही मल्य हट जाते हैं।
सोचा–कम से कम आत्महत्या की-सब तरह के गर्हित कृत्य जब तुम कहते हो गुलाब का फूल सुंदर है, तो तुमने फूल के किये हैं, जन्मों-जन्मों तक इतने कर्मों का जाल, और ध्यान से साथ कुछ जोड़ा। तथ्य को तथ्य न रहने दिया। तुमने कल्पना | मिट जाएगा, क्या मामला है? ध्यान से इसलिए मिट जाता है जोड़ी। तुमने अपना भाव डाला। तुमने तथ्य को अतथ्य किया। | कि जो तुमने किया, वह सपना था। कर्ता का भाव स्वप्न है। रात गुलाब को देखो, कुछ कहो मत। कुछ जोड़ो मत। वहां हो भर कितने काम करते हो, सुबह अलार्म बजा, पक्षी चहचहाये, गुलाब, यहां हो तुम, दो उपस्थितियां-शून्य, शांत-शब्द का आंख खुली, सब गया-रात कितना क्रम था, कितना उपक्रम कोई भी रोग-राग न हो। शब्द बीच में उठे ही नहीं। शब्द सत्य था, कितना उपाय था, कितनी दौड़-धूप थी, कितना पाया, को विकृत करता है। मौन का सेतु हो। वहां गुलाब खिले, यहां कितना खोया, आंख खुलते ही सब खाली तुम खिलो। दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने साक्षात्कार हो। निर्जरा का अर्थ है, जिसे तुमने कर्म जाना वह माया से ज्यादा न तुम कुछ कहो, न तुम कुछ सोचो, न तुम कोई धारणा बनाओ, | नहीं। महावीर माया शब्द का उपयोग नहीं करते। लेकिन इससे तुम बस देखते रहो जो है। जो है उसे प्रगट होने दो, फैलने दो। | क्या फर्क पड़ता है। उनका वक्तव्य इतना साफ है। महावीर यह तब तुम पहली दफे जानोगे गुलाब को-नामरहित, कह रहे हैं, जो तुमने किया वह स्वप्नवत है। जागने की जरूरत विशेषणरहित, रूपरहित। गुलाब अपने समग्र वैभव से प्रगट है, जागते ही स्वप्न खो जाते हैं। रात तुमने चोरी की, सुबह होगा। तुम्हारी आत्मा पर फैलता चला जाएगा। तुम पहली दफा जागकर फिर तुम परेशान तो नहीं होते कि रात चोरी की, चोर स्पर्श करोगे उसका, जो है। और जो गुलाब के साथ कह रहा हूं, बना, अब क्या करूं, अब क्या न करूं? क्या अब दान करूं? वही सारे जीवन के साथ करो, तो महावीर कहते हैं, ज्ञान। | क्या जाकर पुलिस में रपट लिखाऊं? क्या करूं? रात किसी ‘णाणेण ज्झाणसिज्झी।' और ज्ञान से ध्यान सिद्ध होता है। की हत्या कर दी, तो सुबह तुम घबड़ाते तो नहीं कि पुलिस आती बड़ा अमूल्य सूत्र है। ऐसे ज्ञान का अपने-आप रूपांतरण ध्यान | होगी। जागते ही निर्जरा हो गयी। जागते ही निर्जरा इसीलिए हो में हो जाता है। यह ज्ञान की विशुद्धि ही ध्यान बन जाती है। सकती है कि जो किया था वह सोते का सपना था। ध्यान का अर्थ है, निर्विचार-चित्त। जब तुम तथ्य को तथ्य की 'ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा होती है।' निर्जरा शब्द बड़ा तरह देखने में कुशल हो जाते हो, तो विचार विदा हो जाते हैं। प्यारा है। महावीर का अपना है। निर्जरा का अर्थ होता है, झड़ उनकी तरंगें नहीं उठतीं। मौन में साक्षात्कार होने लगता है। जाना। जैसे पतझड़ में पत्ते झड़ जाते हैं। जैसे स्नान करते वक्त तुम्हारी आंख खाली हो जाती है। तुम सिर्फ देखते हो, कुछ शरीर की धूल झड़ जाती है। बैठ गये जलस्रोत के निकट, डालते नहीं। तुम सिर्फ सुनते हो, कुछ विचारते नहीं। तुम सिर्फ जलप्रपात के नीचे, सब धूल झड़ जाती है। ऐसे ध्यान से जब छूते हो, व्याख्या नहीं करते। व्याख्या करना, विचार करना, स्नान हो जाता है, तो सब निर्जरा हो जाती है। कुछ डालना, कुछ जोड़ना, ये सब मन के कृत्य हैं। जब ये सब | 'निर्जरा का फल मोक्ष है।' और निर्जरा की अंतिम अवस्था
कृत्य खो जाते हैं, मन खो जाता है। जहां मन नहीं, वहां ध्यान। | जहां सब झड़ गया, कुछ भी न बचा; सब घास-पात, सब 254 Jain Education International 2010_03
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