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________________ पहला सूत्रः भाव बढ़ता है। मंदिर बनाओ, दान दो, उपवास करो, तप करो प जैसे चिर-संचित ईंधन को वायु से उद्दीप्त आग तो भी हर कृत्य से कर्ता मजबूत होता है। और कर्ता का मजबूत तत्काल जला डालती है, वैसे ही ध्यान रूपी अग्नि होना ही संसार है। कर्ता का मजबूत होना ही संसार में वापस अपरिमित कर्म-ईंधन को क्षणभर में भस्म कर डालती है।' लौट आने की सीढ़ी है। मनुष्य अति प्राचीन है; कहें कि सनातन है, सदा से है। कर्ता क्षीण होना चाहिए। अनंत जन्मों में अनंत कर्म हुए हैं—पुण्य हुए हैं, पाप हुए हैं। कर्ता क्षीण होगा तो कर्म क्षीण होंगे। यदि उन सब पुण्य और पापों के लिए एक-एक का हिसाब धीरे-धीरे यह भाव ही मिट जाना चाहिए कि मेरे भीतर कोई चुकाना पड़े तो मुक्ति असंभव है। एक तो इतना लंबा काल! | कर्ता है। सिर्फ साक्षी शेष रहे। सिर्फ द्रष्टा शेष रहे। उस लंबे काल में इतने कर्मों की शृंखला! उसे छांटते-छांटते तो कर्म को कर्म से काटा नहीं जा सकता। न पाप को पुण्य से अनंत काल व्यतीत होगा। काटा जा सकता है। क्योंकि यह हो सकता है, पाप की जगह और यह जो अनंत काल व्यतीत होगा पुराने कर्मों को तोड़ने में, पुण्य रख लो, लेकिन बंधन बदलेंगे नहीं; रूपांतरित भला हो इस बीच भी नए कर्म निर्मित होंगे। तोड़ना भी कर्म है। किसी जाएं। पहले से सुंदर हो जाएं; ज्यादा सजे-बजे हो जाएं; पहले कर्म से छूटने की चेष्टा नया कर्म और नए कर्म की शुरुआत है। से ज्यादा शृंगार हो जाए उनका। हथकड़ियों पर सोना मढ़ा जा तब तो जाल दुष्टचक्र जैसा है। इसके बाहर होना मुश्किल है। | सकता है, लेकिन हथकड़ियों को इस तरह तोड़ने का कोई उपाय कुछ तो करोगे! अधर्म न करोगे, धर्म करोगे। पाप न करोगे, | नहीं है। कर्म से कर्म नहीं टूटता। पुण्य करोगे। लेकिन महावीर कहते हैं, पुण्य भी वैसे ही बांध | तो फिर कर्म कैसे टूटेगा? लेता है, जैसे पाप। बुरा करनेवाले का भी अहंकार होता है, अगर कर्म से कर्म नहीं टूटता तो क्या आदमी के लिए कोई भी भला करनेवाले का भी अहंकार होता है; और कभी-कभी तो आशा नहीं है? अगर हर कृत्य नए जाल को बना जाएगा तो बुरा करनेवाले से ज्यादा सघन होता है। बुरा करनेवाले को तो फिर हम इस जाल के कभी बाहर हो सकेंगे या न हो सकेंगे? थोड़ी पीडा भी होती है, दीनता भी होती है, अपराध भाव भी होता महावीर कहते हैं, बाहर हआ जा सकता है, लेकिन कर्म द्वार है। भला करने का अहंकार तो स्वर्णमंडित हो जाता है। उसमें नहीं है बाहर होने का। कर्म ही तो संसार में आने की व्यवस्था हीरे-जवाहरात टक जाते हैं। भला करनेवाले का अहंकार तो है। अकर्म द्वार है। पुण्य से शोभायमान हो जाता है, प्रदीप्त हो जाता है। ध्यान का अर्थ है : अकर्म की दशा। ठीक भी करें तो भी करनेवाले की मजबूती बढ़ती है, कर्ता का | ध्यान का अर्थ है : साक्षी की दशा। 369 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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