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________________ प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं जो अंधेरे में भटकते हैं। जो रोशनी मुझे मिली है, जब तक उन तक न पहुंचा दूं तब तक मैं प्रवेश न करूंगा। यह तेरहवें गुणस्थान में रुक जाने की बात है। इसका अर्थ ‘निर्मल हो गया’—नकारात्मक है। शुद्ध हो गया, अशुद्धि हुआ, जो व्यक्ति भगवत्ता को उपलब्ध हो गया है, वह कहता है गई। तेरहवें गुणस्थान की परिभाषा है: थोड़ी देर और अभी इस देह में रहूंगा। क्योंकि इस देह से ही केवलणाणदिवायर-किरणकलावप्पणासि अण्णाणो । उनके साथ संबंध बना सकता हूं, जो अभी देह को ही अपना होना समझते हैं। इस देह से ही कोई संवाद हो सकता है उनके साथ, जिन्होंने देह में ही अपने प्राणों को आरोपित कर लिया है; जो देह के साथ तादात्म्य रूप हो गए हैं। देह में रुक जाने की आकांक्षा को जैनों ने तीर्थंकर कर्मबंध कहा है । जो तेरहवीं अवस्था में रुक जाता है करुणावश, कि पीछे अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, सम्यकत्व, समाधि, अनंत सुख, चलते लोगों को थोड़ी सहायता पहुंचा सकूं, जो मुझे मिला है वह अनंत वीर्य, ये उपलब्धि की सूचनाएं हैं- क्या मिला ! बट भी सकूं जो मैंने पाया है उसे और भी पा सकें। संसार गया, मोक्ष मिला। इसलिए महावीर कहते हैं, तेरहवें गुणस्थान में आए हुए व्यक्ति को भगवान कहा जा सकता, परमात्मा कहा जा सकता है। स्फटिकमणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल की भांति निर्मल हो गया है, ऐसे पुरुषों को वीतरागदेव ने क्षीणमोह या क्षीणकषाय कहा है।' णवकेवललुग्गमं पावियरपरमप्पववएसो।। 'केवलज्ञानरूपी दिवाकर की किरणों के समूह से जिनका अज्ञान-अधंकार सर्वथा नष्ट हो गया, तथा जो सम्यकत्व, अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य को उपलब्ध हुए वे सयोगिकेवलीजिन कहलाते हैं।' दूसरा प्रश्न: क्या तेरहवें गुणस्थान को उपलब्ध होकर भी कोई उससे च्युत हो सकता है, क्या कोई अब तक हुआ है ? नहीं, तेरहवें गुणस्थान तक पहुंचकर कोई कभी च्युत नहीं हुआ, न हो सकता है। तो फिर सवाल उठता है कि चौदहवें गुणस्थान की क्या जरूरत है? जब तेरहवें से वापसी हो ही नहीं सकती, जब तेरहवें से गिरना हो ही नहीं सकता, तो फिर तेरहवें और चौदहवें का फासला क्या ? तेरहवें गुणस्थान से कोई च्युत नहीं होता, लेकिन कोई चाहे तो तेरहवें गुणस्थान पर रुक सकता है। महाकरुणावान पुरुष रुक गए हैं। तेरहवें गुणस्थान पर जो रुक गए हैं, उनके लिए ठीक-ठीक शब्द बौद्धों के पास है; वह शब्द है 'बोधिसत्व' । जिन्होंने कहा, हम चौदहवें में प्रवेश न करेंगे। क्योंकि हम अगर चौदहवें में प्रवेश कर गए तो शरीर छूट जाएगा। शरीर छूट जाएगा तो हम किसी के काम न आ सकेंगे। संबंध टूट जाएंगे। बौद्धों में कथा है कि बुद्ध जब स्वर्ग या मोक्ष के द्वार पर पहुंचे, द्वार खुला तो वे खड़े रह गए। द्वारपाल ने कहा, आप प्रवेश करें । बुद्ध ने कहा कि नहीं, अभी नहीं। अभी बहुत हैं मेरे पीछे, Jain Education International 2010_03 ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। अगर तेरहवीं गुणअवस्था में किसी व्यक्ति ने चेष्टा न की तो वह अपने आप चौदहवीं में सरक जाएगा। तेरहवीं अवस्था से चौदहवीं में जाना ऐसा है, जैसे कि बड़ी कोई ढलान पर उतर रहा हो, या नदी की गहन धार में बहा जाता हो जहां पैर जमाकर खड़ा होना मुश्किल हो जाए। इसलिए जगत में तेरहवीं अवस्था को जैसे ही लोग उपलब्ध होते हैं, तत्क्षण चौदहवीं अवस्था में प्रवेश हो जाते हैं - या थोड़ी देर अबेर । ज्यादा देर रुक नहीं पाते। कुछ बलशाली लोग ज्ञान के बाद भी अज्ञान के संसार में पैरों को टेककर खड़े रहे हैं। उन बलशाली पुरुषों के कारण ही संसार एकदम अंधेरा नहीं है, उसमें कहीं-कहीं दीये टिमटिमाते हैं— कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई क्राइस्ट, कोई महावीर, कोई जरथुस्त्र, कोई मोहम्मद । कहीं थोड़े-थोड़े दीये टिमटिमाते हैं । यह इन बलशाली पुरुषों का... । संसार से छूटना बड़ा कठिन है; लेकिन उससे भी बड़ी कठिन बात है, संसार से छूटकर थोड़ी देर संसार में रुक जाना। अति कठिन बात है। संसार से छूटना ही पहले अति कठिन बात है, फिर जब छूटने की घड़ी आ जाए तो उस समय याद किसको रहती है ? तुम दुख में ही जीए और अचानक महल आ गया, सब सुखों का द्वार खुल गया, तुम रुक पाओगे, तुम दौड़कर महल में प्रवेश कर जाओगे। तुम कहोगे, जन्मों-जन्मों से जिसको खोजा है वह For Private & Personal Use Only 529 www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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