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________________ SHREFER RIER Mosities कहता हूं।' बंद करो ऐसा कहना! तुम कौन हो? पति होने से न सभी सागरों की गहराई ही छुई है। और तुम सभी घाटों से तम उसकी आत्मा के मालिक नहीं हो। यह जो सात फेरे पड़े उतरे नहीं, और तुमने सभी नावों से यात्रा नहीं की है। तुम इतना होंगे, इनसे एक सांसारिक रिश्ता बन गया है, लेकिन उसकी ही कह सकते हो कि मेरी नाव ने पहुंचा दिया। दूसरी नावें आत्मा को तुमने खरीद नहीं लिया। मुक्त करो उसे। उसे जाने दो पहुंचाती हैं, नहीं पहुंचाती हैं, मैं कैसे कहूं? जो चले हों उन नावों अपने मार्ग पर। उसे चुनने दो अपनी विधि, अपना विधान। से, पूछो उनसे। उसके हृदय को बहने दो। महावीर कहते हैं खुद, कि मैं एक तीर्थ बनाता हूं। तीर्थ का 'और कहता हूं कि मूर्तिपूजा व्यर्थ है।' भूलकर ऐसी बात मत | अर्थ होता है, घाट। नदी बड़ी है। बड़ी गंगा है। गंगोत्री से कहना। किसी को उसके रास्ते से व्यर्थ ही भटकाना मत। अगर | सागर तक फैली है। हजारों-लाखों घाट हैं। महावीर कहते हैं, व्यर्थ होगी, तो एक दिन उसे समझ में आयेगी बात, तब वह | मैं एक घाट बनाता हूं। एक तीर्थ बनाता हूं। इसीलिए तीर्थंकर रूपांतरित होगी। कोई किसी दूसरे के समझाये कहीं समझा है? | शब्द। वह यह नहीं कहते कि दूसरे घाट गलत हैं। वह कहते हैं, अपने अनुभव से ही लोग जागते हैं। अगर सार्थक होगी, तो | इतना ही में कहता हूँ कि मेरे घाट से में पहुंच जाएगी। अगर व्यर्थ होगी, तो आज नहीं कल, भटककर | सकते हो। अगर मेरा घाट तुम्हें आकर्षित करता हो, अगर मेरे लौट आयेगी। जब तुमसे पूछे कि समझाओ मुझे ध्यान, क्योंकि घाट में तुम्हें कोई लुभावना निमंत्रण मिलता हो, आ जाओ, मेरी मूर्तिपूजा तो मेरी व्यर्थ हुई, तब निवेदन कर देना। लेकिन तब | नाव तैयार है। महावीर तो एक माझी हैं। नाव लिए तैयार खड़े तक प्रतीक्षा करना, धैर्य रखना। जिस दिन पूछे तुमसे, जिस दिन | हैं, जिनको उतरना हो इस घाट से, इससे उतर जाएं। लेकिन तुम्हारा आनंद उसे छुए और उसे लगे कि तुम तो कुछ पा लिये | महावीर कहते हैं, नदी बड़ी है, घाट और भी हैं। और औरों से और मैं कुछ चूक गयी हूं, उस दिन समझा देना। | भी लोग उतरे ही होंगे, अन्यथा घाट टूट गये होते, बंद हो गये गरु बनने की चेष्टा मत करो। जिस दिन कोई शिष्य बनकर | होते. समाप्त हो गये होते। अगर कोई कभी न उतरा होता. अगर आ जाए, उस दिन अपना सत्य निवेदन कर देना। तब भी तुम | उन घाटों से चलकर लोग डूबते ही रहे होते और दूसरा किनारा यह मत कहना कि मूर्तिपूजा गलत है। तब तुम इतना ही कहना | मिलता ही न होता, तो घाट समाप्त हो गये होते। कि ध्यान सही है। इनमें फर्क है। क्योंकि तुम इतना ही कह इतने धर्म हैं जगत में, क्योंकि सभी धर्मों में सत्य का कोई अंश सकते हो कि मैंने ध्यान किया और पाया कि सही है। मूर्तिपूजा है। सभी किसी न किसी तरह किसी न किसी को पहुंचाते रहे, मैंने कभी की नहीं, तो मैं कौन ? मैं कैसे कहूं, गलत या सही? अन्यथा उनके होने का अर्थ खो जाए। असत्य जी नहीं सकता। कुछ भी कह सकता नहीं। ध्यान मेंने किया है और पाया है कि थोड़ी-बहुत देर शोरगुल मचा सकता है, मर जाएगा। सत्य ही सही है। अगर तेरी मूर्तिपूजा का रास्ता तुझे न पहुंचाता हो, तो जीता है। सत्य ही जीतता है। सत्यमेव जयते। यह मेरे ध्यान के सूत्र हैं, यह निवेदन है। लगे तुझे ठीक, चल मूर्तिपूजा व्यर्थ है, ऐसा तो कहना ही मत। इससे तुम्हारा क्रोध पड़। न लगे ठीक, तेरी मर्जी। फिर भी थोपना मत। सत्य थोपे | तो मालूम पड़ता है, प्रेम नहीं मालूम पड़ता। इससे तुम्हारी हिंसा नहीं जाते। तो मालूम पड़ती है, तुम्हारी करुणा नहीं मालूम पड़ती। इससे सत्याग्रह शब्द बिलकुल गलत है। सत्य का कोई आग्रह होता | ऐसा तो लगता है कि तुम पत्नी को दबाने को उत्सुक हो, अपने ही नहीं। सत्य का सिर्फ निवेदन होता है। सत्य की तो आग्रह के | पीछे चलाने को उत्सुक हो, छाया बनाने को उत्सुक हो, उसको साथ अगर तुमने गांठ बांध दी, तो आग्रह जीत जाएगा, सत्य मर तुम आत्मा की स्वतंत्रता देने को तैयार नहीं। और प्रेम, कैसा जाएगा। सत्य की फांसी लग जाती है सत्याग्रह में। आग्रह ? प्रेम, जो इतनी भी स्वतंत्रता न दे! पूजा, प्रार्थना, ध्यान तो बड़ी महावीर ने कहा है, निराग्रह। जो निराग्रह-भाव को उपलब्ध आत्यंतिक बातें हैं। इससे पति-पत्नी का कुछ लेना-देना नहीं। होता है, वही सत्य को उपलब्ध होता है। सब आग्रह छोडो। दनिया जब अच्छी होगी. तो स्वतंत्रता और गहन होगी-पत्नी। जगत बड़ा है, विराट है। तुमने सब रास्ते नहीं नाप लिये हैं और हो सकता है मस्जिद जाए, पति हो सकता है मंदिर जाए। बेटे हो Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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