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________________ आकांक्षा वही थी, कि तुम्हारे भीतर के परमात्मा का तुम्हें स्मरण आये। लेकिन तुम्हारे साधु-संत तुम्हें सिर्फ तुम्हारे पापी की याद दिला - दिलाकर अपराध से भर गये हैं। तो तुमने जीवन में जिन-जिन चीजों को पाप मानकर दबा रखा है, उन उन में रस बहुत आयेगा । भोग को दबाया, तो भोग में रस आयेगा। काम को दबाया, काम में रस आयेगा । लोभ को दबाया, तो लोभ नये-नये रूपों में प्रगट होगा। क्रोध को दबाया, तो नयी-नयी भाव-भंगिमाएं क्रोध धारण करेगा। जो दबाया, | उससे छुटकारा कभी भी न होगा। दबाने से कोई मुक्ति नहीं आती। समझो, जागो । अगर भोग में रस है, तो भोग से भागो मत। जागो; भोग में ही खड़े-खड़े जागो। तुम्हारा जागरण ही तुम्हें भोग से छुटकारा दिलायेगा । तो मैं नहीं कहता कि भागो। भागने से क्या होगा ? भोग भीतर है, तुम जहां जाओगे वहीं तुम्हारे साथ चला जाएगा। यह कोई बाहर रखी चीज थोड़े ही है, कि पीठ कर ली और भाग खड़े हुए, तो दूर छूट गयी। यह तुम्हारे अंतस में है। इसे मिटाने का एक ही उपाय है – इसे जानना । ज्ञान क्रांति है। और ज्ञान एकमात्र क्रांति है । और तरह की क्रांति होती ही नहीं । तो अगर भोग में रस है, तो घबड़ाओ मत, रस लो । जागकर लो। भोगो। इसका इतना ही अर्थ है कि तुम भोग से अभी गुजरे नहीं । गुजरने के पहले तुमने निंदा कर ली। संसार को अभी जाना नहीं; जानने के पहले त्याज्य समझ लिया। नहीं, व्यर्थता को देखना पड़ेगा। तभी संसार छूटता है। गुजरना पड़ेगा, अनुभव से, अनुभव की पीड़ा से । अनुभव की अग्नि से जलना, तपना पड़ेगा। ‘फिर परंपरा और संस्कार पांव पर बेड़ी की तरह पड़े हैं।' पड़े नहीं हैं, तुम उन्हें पकड़े हुए हो । बेड़ियां कोई बांधे नहीं है, तुम उन्हें सम्हाले हुए हो। कौन तुम्हें रोकता है । छोड़ो। तुम्हारे छोड़ते ही वे छूट जाएंगी। लेकिन भय है, घबड़ाहट है। यह बड़े मजे की बात है - बड़ी विडंबना की भी - कि जिससे कुछ भी नहीं मिलता उसको भी हम पकड़े रहते हैं, सम्हाले रहते हैं थाती की तरह, धरोहर की तरह । तुम कूड़ा-कर्कट भी बाहर नहीं फेंक पाते हो, उसको भी तिजोड़ी में सम्हाले जाते हो। अगर तुम्हें दिखायी पड़ गया है कि यह बेड़ियां हैं, तो अड़चन क्या है, अब छोड़ो। तोड़ो, गिरा दो । एक क्षण में यह घट | Jain Education International 2010_03 ज्ञान ही क्रांति सकता है। लेकिन शायद तुम्हें दिखायी नहीं पड़ रहा है। यहां भी तुमने मेरी बातें सुन-सुनकर मान ली हैं। यह तुम्हारी समझ बनी नहीं है। इसलिए तुम एक तरकीब निकाल रहे हो। तुम कहते हो बेड़ियां बांधे हुए हैं। बांधे हुए कौन है ! संस्कार कहां बांधे हुए हैं। तुम कह दो कि बस क्षमा, अब बहुत हो गया; तुमसे कुछ भी न पाया, अब मुझे तुमसे मुक्त होकर कुछ खोज लेने दो। मंदिर हो आये बहुत बार, कुछ न मिला, अब क्यों रोज चले जाते हो! आदत न बनाओ मंदिर जाने की। धर्म आदत नहीं, स्वभाव है। आदत में स्वभाव दब जाता है। जिस मूर्ति के सामने सिर झुका - झुकाकर थक गये, माथा घिस डाला, मूर्ति भी खराब कर डाली, अब उसको कहो कि बहुत हो गया; हम भी थक गये. ये, तुम भी थक गये होओगे, अब मुझे क्षमा करो! लेकिन कहीं और अड़चन है। जिसको तुम बेड़ियां कह रहे हो, वह मेरा शब्द तुमने उपयोग कर लिया, तुम्हारा नहीं । तुम्हारे मन में तो भीतर कहीं है कि यह बेड़ी बड़ी मूल्यवान है, सोने की है, हीरे-जवाहरात जड़ी है, इसको छोड़ कैसे दें ! इसमें तो बड़ा रहस्य है | तो नहीं छूट पायेगी। तो फिर कैसे छूटेगी ! अगर तुम बीमारी को स्वास्थ्य समझे बैठे हो, तो तुम कैसे इलाज करोगे ? अगर तुमने गलत को ठीक समझ रखा है, अंधेरे को प्रकाश समझ रखा है, कांटे को फूल समझ रखा है, तो फिर तुम कैसे मुक्त हो सकोगे ! जाए देखो ठीक से, अगर बेड़ी है, तो तोड़ो। तोड़ने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता, सिर्फ समझ में आ जाए कि बेड़ी है, छूट जाती है । तुम हाथ में कंकड़-पत्थर लिए जा रहे हो और कोई मिल और कह दे कि कंकड़-पत्थर हैं, तो क्या तुम पूछोगे कि अब इन कंकड़-पत्थरों को कैसे छोडूं ? यह पूछना तो तभी संभव है, जब तुम्हारे भीतर मन में तो तुम मानते हो कि हैं तो हीरे-जवाहरात, यह आदमी कह रहा है कंकड़-पत्थर; इस आदमी को भी इनकार करना मुश्किल है, इस आदमी के तर्क में बल है और भीतर का संस्कार भी कहता है – कंकड़-पत्थर ! ये हीरे-मोती हैं, कंकड़-पत्थर नहीं हैं, अब करें क्या? तुम उस आदमी से पूछते हो, इन्हें छोड़ें कैसे? या तो ये हीरे-मोती हैं, छोड़ने की जरूरत नहीं । या फिर ये कंकड़-पत्थर हैं, छोड़ने की जरूरत क्या है ? छूट ही जाने चाहिए। गिरा दो, हाथ खोल दो । मुट्ठी खोलो। घबड़ाओ मत ! जिससे कुछ भी नहीं For Private & Personal Use Only 233 www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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