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जिन सूत्र भागः 2
बच्चों को तुम मेरी किताबें दे जाओगे, मेरे चित्र दे जाओगे, माला | बिठाया, कोई चालाकी न की। कोई दुनियादारी न की। भोलेपन सम्हाल जाओगे कि सम्हालकर रखना, इस माला से हमने बहुत से चुना। पाया। वह पाना तुम्हारे संकल्प से हुआ था, माला से नहीं। इन तो तुम्हारे बेटों को तुम अगर मुझे दे गये कि सम्हालकर रखना, पुस्तकों से हमें बड़ी ज्योति मिली। वह ज्योति तुम्हारी खोज से वह सम्हालकर रखेंगे, वह पूजा भी करेंगे, लेकिन मैं उनके लिए मिली थी। ये बच्चे इन किताबों को रखकर पूजा करते रहेंगे, ये बोझ हो जाऊंगा, जो गलती तुम्हारे मां-बाप ने की है, वह तुम इन्हें खोलेंगे भी नहीं। और कभी खोलेंगे भी, तो इनका कभी भी मत करना। तुम्हारा मेरा नाता निजी है, वैयक्तिक है। इसे तुम हृदय का स्पर्श न हो सकेगा, क्योंकि जो स्वयं नहीं चुना है...। थोप मत जाना। हां, अगर तुम्हें कुछ मिला हो, तुमने कुछ पाया फर्क समझो।
हो तो अपनी संपदा उखेड़कर बता जाना अपने बच्चों को कि एक युवक एक युवती के प्रेम में पड़ जाता है, यह एक बात है। हमने पाया था, इस तरह खोजा था, तुम भी खोजना। शायद फिर बाप जाता है उस युवक का, पंडे-पुजारी से मिलता है, तुम्हें भी मिल सके। मिलता है, इतना आश्वासन दे जाना। ज्योतिषियों से मिलता है, फिर किसी दूसरी लड़की से उसका तुम्हारे आनंद से उनको प्रमाण मिल जाए कि जगत में परमात्मा विवाह तय करता है। पूछो उस युवक से क्या फर्क है? जिससे है। बस काफी है। फिर वे खोज लेंगे अपना परमात्मा। खुद ही वह स्वयं प्रेम में पड़ गया है, वह जान देने को तैयार है। जिससे खोजेंगे, तो ही मजा आयेगा। मुफ्त मिलेगा, तो बे-मजा हो बाप उसका विवाह करवा देना चाहता है, वह समझता है यह | जाता है। फंदा हो रहा है, फांसी लग रही है। दोनों स्त्रियां हैं। यह भी 'जिन-सूत्र पर प्रवचन अच्छा लगता है।' तो कहीं भूल हो जरूरी नहीं है कि बाप ने जो स्त्री चुनी है, वह प्रेयसी से कम सुंदर रही है अभी। जो में कह रहा हूं, उसे सुनो, बहानों पर ध्यान मत हो—ज्यादा भी हो सकती है। निश्चित ही बाप ज्यादा होशियार दो। बहानों पर ध्यान गलत दृष्टि के कारण जाता है। अकसर है। ज्यादा जीवन देखा है। वह ज्यादा सुंदर, स्वस्थ, कुलीन, ऐसा होता है कि मैं वही कहता हूं महावीर के नाम पर, वही सुशिक्षित, संपन्न परिवार चुनेगा। वह हजार बातें सोचेगा, जो कहता हूं बुद्ध के नाम पर। ठीक वही बात कहता हूं। लेकिन बेटा अभी जान भी नहीं सकता, सोच भी नहीं सकता। बेटा तो जब बुद्ध के नाम पर कहता हूं, तब जैन बैठा रहता है. उसको अंधे की तरह किसी भी लड़की के प्रेम में पड़ सकता है। बाप कुछ रस नहीं आता। जब महावीर के नाम पर कहता हूं, तब वह हजार बातें सोचेगा, आगे की, पीछे की, सब हिसाब लगायेगा।| सजग होकर सुनने लगता है, उसकी रीढ़ सीधी हो जाती है। तो बाप गणित से चलेगा, तर्क से चलेगा। बेटा प्रेम से चल रहा है। तुम अपने अहंकार को पूज रहे हो। न तम महावीर को पज रहे,
लेकिन बेटा जिसके प्रेम में पड़ गया है, उस पर जान देने को न बुद्ध को पूज रहे। तैयार है। और जिससे उसका विवाह किया जा रहा है, वह 'जिन-सूत्र पर प्रवचन अच्छा लगता है, पर भोग में रस बहत जबर्दस्ती घसीटा जाएगा-जैसे बलि का पशु बूचड़खाने की है।' दोनों का कारण जिन-सूत्र है। जिन-सूत्र पर प्रवचन तरफ घसीटा जाता है, ऐसा अनुभव करेगा। उसे लगेगा मौत हो अच्छा लगता है। क्योंकि बचपन से वही सुना है, पकड़ा है, रही है मेरी।
पकड़ाया गया है। अबोध थे तब से तुम्हारा मन उसी से आरोपित यही फर्क धर्मों का भी है। जो धर्म तुमने चुना, वह तो तुम्हारा किया गया है। और उसी के कारण भोग से भी छुटकारा नहीं प्रेम है। और जो धर्म तुम्हें मां-बाप से मिला, वह तुम्हारा विवाह होता, क्योंकि बचपन से ही दमन सिखाया गया है। जिन-सूत्र है। विवाह कभी प्रेम नहीं हो पाता। और जिस दिन प्रेम विवाह की जिन्होंने व्याख्या की है, उन्होंने ऐसी गलत व्याख्या की है कि हो जाता है, उस दिन प्रेम मर जाता है। या जिस दिन कभी विवाह जिन-सूत्र का पूरा अर्थ दमनात्मक हो गया है, रिप्रेसिव हो गया प्रेम बन जाता है, उस दिन विवाह समाप्त हो जाता है। प्रेम बड़ी है। दबाओ। कुछ भी स्वीकार नहीं है। निषेध करो। कुछ भी बात और है। क्या है फर्क? तुमने चुना, स्वतंत्रता से चुना। विधेय नहीं है। काटो। पापी बना गये हैं वे सूत्र और उनकी अपने भाव से चुना। अपने हृदय से चुना। कोई गणित न व्याख्याएं तुम्हें। होना तो उलटा चाहिए था। महावीर की तो
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