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जिन सूत्र भाग: 2
मेरे लब पे लबे लालीने निगार आ ही गया
तृष्णा स्वर्ग की अमृत-नदी से कृतज्ञ हो गयी, प्रिय के ओंठ मेरे ओंठों पर आ गये
हो गयी तश्ना-लबो आज रहीने-कौसर
मेरे लब पे लबे लालीने निगार आ ही गया
वह तो ऐसा है जैसे परमात्मा ने आलिंगन किया। परम वैराग्य का आह्लाद तो ऐसे है जैसे परमात्मा के ओंठ तुम्हारे ओंठ पर आ गये। रागी तो असंभव चेष्टा में लगा है। रागी तो ऐसी चेष्टा में लगा है, जैसे कोई रेत से तेल निचोड़ रहा हो। रागी तो ऐसी चेष्टा में लगा है कि नीम के पौधों को सींच रहा हो और आम की आशा कर रहा हो ।
आग को किसने गुलिस्तां न बनाना चाहा
बुझे कितने खलील आग गुलिस्तां न बनी रागी तो आग को फुलवाड़ी बनाने में लगा है। अंगारों को फूल बनाने में लगा
आग को किसने गुलिस्तां न बनाना चाह
जल बुझे कितने खलील आग गुलिस्तां न बनी
कभी आग फुलवाड़ी बनी है? कभी अंगारे फूल बने ? साधारण आदमियों से लेकर सिकंदरों तक चेष्टा करते हैं और हार जाते हैं। पराजय संसार का निचोड़ है। इसीलिए तो हमने महावीर को जिन कहा। जिन अर्थात जिसने जीत लिया। जिन अर्थात जिसने पा लिया। जिन अर्थात जो वस्तुतः सफल हुआ। | सफल ही नहीं सुफल भी हुआ। जिसके जीवन में फल लगे।
'जैसे-जैसे अश्रुतपूर्व का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नितनूतन... ।' और वैराग्य भी नितनूतन फूल खिलाता है। तुम यह मत सोचना कि वैराग्य एक बंधी-बंधायी रूढ़ि है। तुम यह मत सोचना कि विरागी बस उसी उसी ढांचे में बंधा हुआ रोज जीता है। वस्तुतः रागी जीता है ढांचे में, वैरागी तो प्रतिपल नये, और नये में प्रवेश करता है । विरागी का न तो कोई अतीत है - वह अतीत को नहीं ढोता - और न उसकी कोई अतीत को पुनरुक्त करने की आकांक्षा है। इसलिए कुछ भी पुनरुक्त नहीं होता । वैरागी की सुबह हर रोज नयी है। वैरागी की सांझ हर सांझ नयी है। वैरागी का हर चांद नया है, हर सूरज नया है । वह धूल को संभालता ही नहीं, इसलिए प्रतिपल ताजा है, निर्मल है। कुफ्रोशर तबियत में मेरी टूटे हुए साजों का मातम
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मुतरिबे - फर्दा हूं 'सागर' माजी के अजादारों में नहीं है कुफ्रोशर तबियत में मेरी टूटे हुए साजों का मातम - जो टूट चुके साज, अतीत जो बीत चुका, उसे तो मैं पाप समझता हूं। उसकी बात ही उठानी व्यर्थ है। जो जा चुका, जा चुका।
है कुफ्रोशर तबियत में मेरी टूटे हुए साजों का मातम मुतरिबे - फर्दा हूं सागर- मैं भविष्य का गायक हूं। माजी के अजादारों में नहीं— मैं अतीत के लिए रोनेवालों में नहीं ।
विरागी, वीतरागी, स्वयं में थिर हुआ संन्यासी कोई धूल लेकर नहीं चलता। वह कोई संग्रह लेकर नहीं चलता। जो बीत गया, बीत गया। जो बीत रहा है, बीत रहा है। वह सदा नया है । सुबह की ओस की भांति ताजा । सदा स्वच्छ है । क्योंकि मन का संग्रह ही अस्वच्छ करता है, अपवित्र करता है, बासा करता है। तुमने कभी खयाल किया, जो तुम अनुभव कर चुके बार-बार, बासे हो जाते हैं। छोटे बच्चे को देखा, तितलियों के पीछे भागते ! तुम नहीं भाग सकोगे। क्योंकि तुम कहते हो तितलियां हैं, देख लीं बहुत | छोटे बच्चे को देखा, छोटी-छोटी चीजों से चमत्कृत होते हैं! छोटी-छोटी चीजें उसे आश्चर्य से भर हैं। घास का फूल, और छोटे बच्चे को ऐसा आंदोलित कर देता है, ऐसा रस-विभोर कर देता है कि वह खड़ा है और देख रहा है, आंखों पर उसे भरोसा नहीं आता कि ऐसा चमत्कार हो सकता है! छोटे बच्चे को देखा, सागर के किनारे कंकड़-पत्थर- सीपी बीन लेता है, ऐसे जैसे कि हीरे-जवाहरात हों, कोहिनूर हों ! क्या मामला है? इस छोटे बच्चे के पास ताजा मन है। इसके पास कुछ अतीत का संस्मरण नहीं है । इसलिए ये यह नहीं कह सकता कि यह पुराना है। इसके पास तौलने का कोई उपाय ही नहीं है कि कह सके पुराना है।
वैराग्य नया जन्म है। फिर से छोटे बच्चे की भांति हो जाना है। जीसस ने कहा है, जो छोटे बच्चों की भांति होंगे, वे ही केवल मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। हिंदू कहते हैं द्विज होना होगा, दुबारा जन्म लेना होगा। एक जन्म तो मां-बाप से मिलता है। वह जन्म शरीर का है। एक जन्म तुम्हें स्वयं ही अपने को देना होगा । वह आत्मसृजन है। वही आत्मसाधना । तब फिर व्यक्ति सदा ताजा रहता है। रोज-रोज आह्लाद से भरा हुआ। ऐसी कथा है, रामकृष्ण को छोटी-छोटी चीजों में रस था ।
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