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________________ सत्य के द्वार की कुंजी: सम्यक-श्रवण आए। यह कोई और ही आया। यह कुछ नया ही आया। रूखे-सूखेपन को उन्होंने साधना समझ लिया है। उनसे तो नि अतिशय रस के अतिरेक से युक्त अपूर्वश्रत संसारी भी कभी ज्यादा आनंदित दिखायी पड़ता है। यह तो का अवगाहन करता है...।' और जिसे कभी नहीं सुना उसे इलाज बीमारी से महंगा पड़ गया। यह तो औषधि रोग से भी सुनता है। सत्य ऐसा है जिसे कभी नहीं सुना, जिसे कभी नहीं भयंकर सिद्ध हुई। देखा। ऐसा अनजान, ऐसा अपरिचित, ऐसा अज्ञेय है। संसारी भी कभी हंसता मिलता है, तुमने जैन-मुनियों को हंसते 'उस अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है...।' जब चित्त थिर देखा? न हंस सकेंगे। हंसना उन्हें कठिन हो जाएगा। हंसना होता है, तो शांति भी बोलने लगती है। तो मौन भी मुखर हो | उन्हें सांसारिक मालूम पड़ेगा। तुमने उन्हें आह्लादित देखा? जाता है। जब भीतर सब शून्य होता है, तो बाहर से शून्य भी तुमने उन्हें देखा किसी गहन संगीत से भरे हुए? तुमने उन्हें तरंगित होकर भीतर प्रवेश करने लगता है। जब तुम ध्यान की | बांसुरी बजाते, वीणा बजाते देखा? तुमने उन्हें नाचते देखा? आखिरी अवस्था में आते हो, तो अस्तित्व तुमसे बोलता है। नहीं, असंभव है। कहीं कुछ भूल हो गयी। और भूल वहां हो परमात्मा तुमसे बोलता है। ध्यान की परम अवस्था में परमात्मा गयी–प्रथम चरण पर उन्होंने प्रतिज्ञा लेकर संन्यास लिया। की तरफ से, अस्तित्व की तरफ से तुम्हारी तरफ संदेश आने सत्य को जानकर नहीं, शास्त्र को मानकर संन्यास लिया। शुरू हो जाते हैं। अनुभव से नहीं, विश्वास से संन्यास लिया। व्रत, अनुशासन इसको खयाल में लेना। थोपा। अपने ऊपर बलात्कार किया। उसी में सूख गये, खराब प्रार्थना में भक्त भगवान को पातियां भेजता है। ध्यान में, हो गये। भगवान भक्त को। प्रार्थना में भक्त भगवान से बोलता है, जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से युक्त होता है, कहता है कुछ; ध्यान में भगवान साधक से बोलता है, कहता है अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नितनूतन कुछ। महावीर का मार्ग ध्यान का मार्ग है। वैराग्ययुक्त श्रद्धा से आह्लादित होता है।' 'जह जह सुयभोगाहइ।' और जैसे-जैसे उस परम सुख में न, अब यहां एक बात खयाल ले लेने जैसी है। तुमने रागयुक्त डूबना होता है, जैसे-जैसे उस अतिशय रस में उतरना होता लोगों को तो प्रसन्न देखा। इससे तुम यह भूल मत कर लेना कि है...'अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं।' और जैसे-जैसे अपूर्वश्रुत वैराग्ययुक्त लोग तो कैसे प्रसन्न हो सकते हैं! वैराग्य की अपनी का अवगाहन होता है। जैसे-जैसे सुनायी पड़ता है शून्य का प्रसन्नता है। और राग की प्रसन्नता से बड़ी ऊंची और बड़ी स्वर, जिसको झेन फकीर कहते हैं 'साउंडलेस साउंड'- शून्य गहरी। राग की भी कोई प्रसन्नता हो सकती है! सिर्फ मन को का स्वर, एक हाथ की ताली, कोई बोलता नहीं है, कोई समझा लेना है। वैराग्य का भी आनंद है। तुमने क्या किया? बोलनेवाला नहीं है, अस्तित्व ही संदेश देता है। जब परमात्मा | राग से भरा हुआ आदमी थोड़ा प्रफुल्लित दिखायी पड़ता है, तो चारों तरफ से तरंगायित होने लगता है-अपूर्वश्रुत का तुमने उससे विपरीत वैराग्य की प्रतिमा बना ली। क्योंकि रागी अवगाहन–'वैसे-वैसे नितनूतन वैराग्ययुक्त श्रद्धा से हंसता है, रागी गीत गाता है, तो वैरागी हंस नहीं सकता, गीत आह्लादित होता है। | नहीं गा सकता। तुम्हारा वैरागी राग का ही शीर्षासन है। उल्टा इसे लक्षण समझना साधु का। इसे लक्षण समझना संन्यासी खड़ा कर दिया वैरागी को। लेकिन वास्तविक वैराग्य परम राग का। अगर आह्लाद न हो, तो समझ लेना कि कहीं भूल हो गयी। है। वास्तविक वैराग्य का तो कैसे रागी मुकाबला करेंगे! उस अगर नाचता न मिले संन्यासी, तो समझ लेना कहीं भल हो नृत्य को तो कैसे रागी पहुंच सकते हैं। उस आह्लाद को तो, गयी। अब जाओ जैन-आश्रमों में, जैन-मंदिरों में, | कमल के उन फूलों को तो तभी कोई छू सकता है जब चित्त सब जैन-पूजागृहों में, जैन-मुनियों को देखो, इस सूत्र का कहीं भी भांति निर्मल हुआ हो। वैसी मुस्कुराहट तो केवल परम शांत तुम्हें कोई लक्षण मिलेगा? रूखे-सूखे, मरुस्थल-जैसे, जहां | चित्त से ही उठ सकती है। कभी कोई हरियाली नहीं। कहीं कुछ भूल-चूक हो गयी। हो गयी तश्ना-लबो आज रहीने-कौसर 15 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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