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जिन सूत्र भाग: 2
खिले, तो चूक फूलों की है; उसमें महावीर क्या करें ? महावीर ने स्थिति तो पैदा कर दी थी । वृक्षों में थोड़ी भी समझ होती तो फूल खिलने चाहिए थे। वातावरण मौजूद था — और मौसम क्या चाहिए, महावीर मौजूद थे ! अब किसकी और प्रतीक्षा थी? और किस वसंत की अब अभीप्सा है ? वसंत मौजूद था इससे बड़ा वसंत कभी पृथ्वी पर आया है? खिले हों तो ठीक, न खिले हों, फूलों की गलती; महावीर का कोई कसूर नहीं है।
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तुम से भी बहुत महावीर के पास से गुजरे होंगे, क्योंकि नया तो यहां कोई भी नहीं है। सभी बड़े पुराने यात्री हैं। जराजीर्ण! सदियों-सदियों चले हैं। तुममें से भी कुछ जरूर महावीर के पास गुजरे होंगे। नहीं महावीर, तो मुहम्मद के पास गुजरे होंगे। नहीं मुहम्मद, तो कृष्ण 'के पास गुजरे होंगे। ऐसा तो असंभव है इस विराऽऽऽट और अनंत की यात्रा में तुम्हें कभी कोई महावीर - जैसा पुरुष न मिला हो। अगर तुम्हारे फूल न खिले, तो कसूर तुम्हारा है। मौसम तो आया था, द्वार पर खड़ा था, वसंत ने तो दस्तक दी थी, तुम सोये पड़े रहे। तालमेल बैठ जाए, फूल खिल जाते हैं।
मेरे पास कुछ लोग आते हैं, वे कहते हैं हमें भरोसा नहीं आता कि दूसरे लोग आपके पास आकर इतने आनंदित क्यों हैं! जिसका तालमेल बैठ जाता है, उसके फूल खिल जाते हैं। जिसका तालमेल नहीं बैठता, वह तर्क की उधेड़बुन में ही लगा रह जाता है। वह सोच-विचार में लगा रहता है, क्या ठीक, क्या गलत ? उसका तर्क वसंत से मेल नहीं खाने देता। ऋतु आ | जाती है, वृक्ष उदास ही खड़ा रहता है, वह सोचता ही रहता है यह वसंत है या नहीं? और आए वसंत को जाने में देर कितनी लगती है ! वसंत आ गया। वसंत आ गया ! इतनी देर चूके तर्क में, संदेह में कि जो था, नहीं हो जाता है।
'जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से युक्त होकर अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है, वैसे-वैसे नितनूतन वैराग्ययुक्त श्रद्धा से आह्लादित होता है । '
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वेद कहते हैं— 'रसो वै सः । ' वह परमात्मा रसरूप है महावीर की भाषा में परमात्मा के लिए कोई जगह नहीं, लेकिन रस से थोड़े ही बच सकोगे? परमात्मा छोड़ दो, रस को थोड़े ही छोड़ सकोगे? वेद कहते हैं परमात्मा रसरूप है, महावीर कहते हैं रसरूप हो जाना परमात्मरूप हो जाना है। यह सिर्फ भाषा का फर्क है।
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'जैसे-जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से।' नारद भी अब और क्या करेंगे ! यह भाषा का ही थोड़ा-सा भेद है। महावीर कहते हैं, जैसे- जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से, ऐसे र की वर्षा होती है। स्थिरचित्त होते ही द्वार खुल जाता है। बाढ़ आ जाती है । कूल - किनारे तोड़कर बहती है चेतना की धारा । 'अतिशय रस के अतिरेक से।' अतिरेक हो जाता है। अतिशयोक्ति हो जाती है। तुम्हारा पात्र संभाल नहीं पाता। बहने लगता है । देना ही पड़ता है, बांटना ही पड़ता है। किसी को साझेदार बनाना ही पड़ता है। जब तक नहीं मिला तब तक अकेले रह जाओ, मिलते ही ढूंढ़ना पड़ेगा किसी को, किसी सुपात्र को जो लेने को तैयार हो ।
महावीर बारह वर्ष तक मौन खड़े रहे, जंगलों में, पर्वतों में, पहाड़ों में | जब अतिशय रस का अति हुआ, भागे आए । भाग गये थे जिस बस्ती से, उसी में वापिस लौट आए; ढूंढ़ने लगे लोगों को, पुकारने लगे, बांटने लगे। अब घटा था अब इसे रखना कैसे संभव है! जैसे एक घड़ी आती है, नौ महीने के बाद, मां का गर्भ परिपक्व हो जाता है। फिर तो बच्चा पैदा होगा। फिर तो उसे नहीं गर्भ में रखा जा सकता। अब तक संभाला, अब तो नहीं संभाला जा सकता। उसे बांटना होगा।
शास्त्रों ने बहुत कुछ बात बहुत तरह से महावीर, बुद्ध और ऐसे पुरुषों का संसार का त्याग करके पहाड़ों और वनों में चले जाना, इसकी कथा कही है। लेकिन वह कथा अधूरी है। दूसरा हिस्सा, जो ज्यादा महत्वपूर्ण है, उन्होंने छोड़ ही दिया। दूसरा हिस्सा जो ज्यादा महत्वपूर्ण है, वह है उनका वापिस लौट आना लोक-मानस के बीच। एक दिन जरूर वे जंगल चले गये थे। तब उनके पास कुछ भी न था । जब गये थे तब खाली थे। खाली थे, इसीलिए गये थे, ताकि भर सकें। इस भीड़-भाड़ में, इस उपद्रव में, इस विषाद में, इस कलह में शायद परमात्मा से मिलना न हो सके। तो गये थे एकांत में, गये थे मौन में, शांति में, ताकि चित्त थिर हो जाए, पात्रता निर्मित हो जाए। लेकिन भरते ही भागे वापिस ।
वह दूसरा हिस्सा ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि दूसरे हिस्से में ही वह असली में महावीर हुए हैं। पहले हिस्से में वर्द्धमान की तरह गये थे। जब लौटे तो महावीर की तरह लौटे। जब बुद्ध गये थे तो गौतम सिद्धार्थ की तरह गये थे । जब आए तो बुद्ध की तरह
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