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________________ सत्य के द्वार की कुंजी : सम्यक-श्रवण हम साधारणतः नदी के विपरीत तैरने का प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि बिना जले तुम चेतोगे नहीं। उस आग को बुझाओ मत, हमारी कोशिश असंभव को संभव बनाने की है। हम स्वभाव के पानी मत फेंको-व्रत और नियम, कसमें, इनका पानी फेंककर प्रतिकूल चेष्टा में रत हैं। हम इस जीवन को, जो केवल अंगारों को बुझाओ मत—आग को जलने दो, आग को क्षणभंगुर है, शाश्वत बनाने की आयोजना कर रहे हैं। हम प्रज्वलित होने दो, आग को पूरी तरह जलने दो, ताकि तुम्हें दग्ध मिट्टी-पत्थर को हीरे-जवाहरातों की तरह छाती से लगाने की कर जाए, ताकि तुम्हें अनुभव हो जाए कि क्रोध कैसी अग्नि है! कोशिश कर रहे हैं। हम हड्डी-मांस-मज्जा की देह को अपना वही अनुभव तुम्हें क्रोध की तरफ जाने से रोक लेगा। फिर जीवन शाश्वत घर समझने की, समझाने की कोशिश कर रहे हैं। हमारी में एक नियम आता है। वह नियम कसम से आया नियम नहीं चेष्टा है कि किसी तरह दो और दो चार न हों, पांच हो जाएं। हो | है। वह नियम बोध से आया नियम है। नहीं सकता। संसार में असफलता मिलती है, क्योंकि सांसारिक | 'और संयम में स्थित होकर विशुद्ध साधक जीवनपर्यंत मन की चेष्टा असंभव को पूरा करने की चेष्टा है। | निष्कंप, स्थिर-चित्त होकर विहार करता है।' जिस व्यक्ति को सत्य और असत्य दिखायी पड़ने शुरू हो महावीर और बुद्ध के कारण भारत के वे भूमिखंड जहां वे गये, शुद्ध निर्मल प्रतीति होनी शुरू हुई, उसके जीवन में तप, | जीए, 'विहार' कहलाने लगा। लेकिन विहार शब्द को नियम, संयम अपने-आप उतर आते हैं। इन्हें लाना नहीं पड़ता। | समझना। विहार का मतलब है-विहार बड़े सुख की, महासुख इन्हें खींच-खींचकर आयोजना नहीं करनी पड़ती। एक बात सूत्र की दशा है—जब चित्त बिलकुल स्थिर हो जाता है, जब कोई की तरह याद रखना, जिसे खींच-खींचकर लाना पड़ता हो, वह चीज डांवाडोल नहीं करती, कोई विकल्प मन में नहीं रह जाते आएगा नहीं। इस जगत में जबर्दस्ती कुछ घटता ही नहीं। सत्य | | और चित्त निर्विकल्प होता है; जब तुम्हारी दिशा सत्य की तरफ सहज है। इसलिए जब तक साधना सहज न हो, तब तक तुम सीधी और साफ हो जाती है, जब तुम रोज-रोज रास्ते नहीं व्यर्थ ही कष्ट अपने को दे रहे हो। बदलते, जब तुम्हारा प्रवाह संयत हो जाता है, तब तुम्हारे जीवन न मालूम कितने लोग अकारण खुद को पीड़ा देने में लगे रहते में एक महासुख का आविर्भाव होता है, वैसे महासुखी का हैं। कोई उपवास कर रहा है, कोई धूप में खड़ा है, कोई रात सोता | जहां-जहां विचरण होता है, वह भूमिखंड भी सुख से भर जाता नहीं, कोई दिन-रात खड़ा रहता है—वर्षों से खड़ा है, कोई कांटों है; वह भूमिखंड भी, हवा के कण भी, वृक्ष-पहाड़-पर्वत भी, पर लेटा है, ये सारे के सारे लोग रुग्ण लोग हैं। यह तप नहीं है। नदी-नाले भी उसकी आंतरिक-आभा को झलकाने लगते हैं। यह तो एक तरह की आत्महिंसा है। ये लोग 'मेसोचिस्ट' हैं। कथाएं हैं बड़ी प्यारी कि महावीर जहां से निकल जाते, इन्हें स्वयं को दुख देने में रस आ रहा है। कुछ लोग होते हैं, कुम्हलाये वृक्ष हरे हो जाते। महावीर जहां से निकल जाते, जिनको स्वयं के घाव में अंगलियां डालकर दख और पीड़ा पैदा असमय में वक्षों में फल लग जाते। ऐसा हआ होगा, ऐसा मैं | करने में रस आता है। ये बीमार-चित्त लोग हैं। ये तपस्वी नहीं | नहीं कहता हूं। ऐसा होना चाहिए, ऐसा जरूर कहता हूं। हैं। यह तप क्रोध से भरा है। यह तप हिंसा से डूबा हुआ है। ऐसे | जिन्होंने ये कहानियां गढ़ी हैं, उन्होंने बड़े गहरे काव्य को तप से कोई कभी सत्य को उपलब्ध नहीं हआ। तप से कोई सत्य अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने जीवन के सत्य को बड़ी गहरी भाषा को उपलब्ध होता ही नहीं; सत्य की उपलब्धि से तप उपलब्ध | दी है। मानता नहीं कि वृक्षों ने ऐसा किया होगा—आदमी नहीं होता है। करते, वृक्षों की तो बात क्या; आदमी नहीं खिलते, तो वृक्षों की तप, संयम, नियम तुम्हारी सहजता से आने चाहिए। तुम्हारे तो बात क्या है लेकिन ऐसा होना चाहिए। लेकिन अगर वृक्षों अनुभव से आने चाहिए। तो मैं तुमसे कहूंगा, अगर क्रोध हो तो में फूल न खिले हों तो जिन्होंने कहानी लिखी उनका कोई दोष कसम मत खाना कि क्रोध न करेंगे। अगर क्रोध होता हो, तो नहीं, वृक्षों की भूल रही होगी। वे चूक गये। इसमें कवि क्या क्रोध को ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करना क्या है। क्रोध करे। कवि ने तो बात ठीक-ठीक कह दी, ऐसा होना चाहिए को बोधपूर्वक करना। क्रोध में उतरना। उस आग को जलाने दो, था। नहीं हुआ, वृक्ष नासमझ रहे होंगे। अगर असमय फूल न 13 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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