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________________ जिन सूत्र भाग: 2 अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं कि है परमात्मा! कि कहीं पैदा हुई, वह तरंग तुम्हारी है। इसलिए मेरे सुनने से तुम उसको ऐसी घड़ी आती है जीवन में, जब हजार-हजार सूरज प्रगट हो बांध मत लेना। वह तरंग तो तुम्हारी है। मेरा बोलना तो जाते हैं। हजार-हजार नीलकमल तुम्हारे प्राणों में खिल जाते हैं। निमित्त-मात्र था। मेरे बोलने की संगति में तुम अपने ही भीतर के बोलता हूं; इस बोलने का प्रयोजन ऐसे ही है जैसे कोई किसी छिपे हुए तल से परिचित हुए हो। लेकिन परिचित तुम संगीतज्ञ वीणा को बजाए। तो कुछ समझाने को नहीं बजाता। | अपने ही भीतर के तल से हुए हो। मेरे प्रकाश में जो तुमने देखा तुम मुझे एक वीणावादक की तरह याद रखना। यह बोलना मेरी है, वह तुम्हारा ही है; वह मेरा नहीं है। रोशनी मेरी होगी, लेकिन वीणा है। यह जो मैं तुमसे कह रहा हूं, कह कम रहा हूं, गा ज्यादा जो खजाना तुमने खोज लिया है वह तुम्हारा ही है। रहा हूं। इसका प्रयोजन तुम्हारी समझ में आ जाए, तो बस काफी इसलिए तुम यह मत सोचना कि वह, यहां मुझे सुनना तुमने है। वह प्रयोजन इतना ही है, इस वाद्य को सुनते-सुनते...जैसे | बंद किया कि खो जाएगा। जो इस तरह हो कि मेरे सुनने से पैदा वीणा को सुनते-सुनते कभी-कभी ‘तारी' लग जाती है। डोलने | हो और बाहर जाते ही खो जाए, तो समझना कि तुमने सुना ही लगता है आदमी। कुछ भीतर कंपने लगता है। कोई पत्थर जैसी नहीं। वह बौद्धिक था। वह सिर की खुजलाहट थी। सुन चीज भीतर पिघलने लगती है, बहने लगती है। एक क्षण को लिया, अच्छा लगा, मनोरंजन हुआ, लेकिन तुम कहीं हिले. एक झरोखा खुलता, एक वातायन खुलता, आकाश दिखायी नहीं। तुम्हारी नींव का कोई पत्थर न सरका। तुम्हारे भीतर कोई पड़ जाता है। जैसे बिजली कौंध गयी। अंधेरा खो गया—एक नये का उदघाटन न हुआ, कोई नये का आविष्कार न हुआ। तो क्षण को सही-लेकिन फिर तुम जानते हो कि प्रकाश है, और थोड़ी-सी शब्दों की, सूचनाओं की, तथ्यों की संपदा बढ़ तुम यह भी जानते हो कि राह है। एक क्षण को दिखी थी बिजली जाएगी, उधारी थोड़ी और तुम्हारी बढ़ जाएगी। तुम और उधार की कौंध में, लेकिन दिख गयी। अब तुम्हें कोई यह नहीं कह हो गये, तुम्हारा नगद होना और भी ढंक गया। इससे कुछ लाभ सकता कि राह नहीं है, और तुम्हें कोई यह नहीं कह सकता कि न होगा। तुम ज्ञानी बन जाओगे, पंडित बन जाओगे, लेकिन प्रकाश सब कल्पना है, कि प्रकाश सब सपना है। अब तुम्हें इससे धर्म का जन्म न होगा। कोई भी झुठला न सकेगा। यह है प्रयोजन। अगर सच में तुमने सुना, ऐसी गहनता से सुना कि तुम्हारा पूरा तो ऐसा हो सकता है, सनते-सनते एक कंपन हो गया हो। हो | व्यक्तित्व जैसे कान हो गया_आंख भी कान. हाथ भी कान. जाए कंपन, तो एकदम खो भी न जाएगा, क्योंकि इतना गहरा हृदय भी कान-जैसे तुम सिर्फ एक द्वार हो गये, और तुमने मुझे घटता है! फिर तुम चले भी जाओगे उठकर यहां से, तो कंपन आने दिया—तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि कितना मुझे आने जारी रहेगा। और तब उन कंपती हुई नयी तरंगों के आधार से दोगे—अगर तुम मुझे पूरा आने दो तो तरंगें नहीं, अंधड़ उठ जब तम वक्षों को देखोगे, तो उनकी हरियाली और ही होगी! जाएंगे। अगर तुम मुझे पूरा आने दो तो तूफान उठ जाएंगे। अगर उन्हीं फूलों को जिन्हें कल भी देखा था, फिर देखोगे, तुम पाओगे | तुम मुझे पूरा आ जाने दो, हिम्मत करके तुम पूरे द्वार-दरवाजे उन फूलों की कोमलता और ही है! कोई दिव्य आभा उन्हें घेरे खोल दो और कहो कि आओ, राजी हूं-इसी को तो मैं संन्यास है। हरियाली के चारों तरफ कोई आभामंडल वृक्षों को घेरे है। कहता हूं, इसी को तो मैं दीक्षा कहता हूं तो तुम फिर दुबारा उन्हीं लोगों को देखोगे, अपनी पत्नी को घर जाकर देखोगे और वही न हो सकोगे। एक नये जीवन का प्रारंभ हुआ। फिर तो मुझे पाओगे, वह तुम्हारी पत्नी ही नहीं, उसमें परमात्मा भी है। अपने बोलने की भी जरूरत न होगी। अगर तुम राजी हो और खुले हो, पति को घर जाकर देखोगे, तो पति होना गौण हो जाएगा, उसका तो मेरी चुप्पी भी तुम्हें कंपाएगी। क्योंकि असली में मेरा सवाल परमात्मा होना प्रमुख हो जाएगा। अपने बेटे को देखोगे, तो बेटा | ही नहीं है। ही नहीं रह जाएगा। मेरी खामोशी-ए-दिल पर न जाओ इस नये अनुभव के आधार पर तुम्हारे जीवन की सारी संरचना कि इसमें रूह की आवाज भी है | में क्रांति होने लगेगी। क्योंकि जो तरंग तुम्हारे भीतर मुझे सुनकर बोलता हूं, या चुप हूं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। बोलूं तो Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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