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रूह की आवाज है, न बोलूं तो रूह की आवाज है।
तुम जब सुनने में तत्पर हो जाओगे, जब तुम सुनने में कुशल हो जाओगे, तो तुम मेरी चुप्पी को भी सुन सकोगे, मेरे मौन को भी सुन सकोगे F
मेरी खामोशी-ए-दिल पर न जाओ
कि इसमें रूह की आवाज भी है
आज तुम शब्द न दो, न दो कभी मैं हूं
तुम पर्वत हो अभ्रभेदी शिलाखंडों के गरिष्ठपुंज चांपे इस निर्झर को रहो, रहो
तुम्हारे रंध्र- रंध्र से
तुम्हीं को रस देता हुआ फूटकर - मैं बहूंगा
तुम्हीं ने धमनी में बांधा है लहू का वेग
यह मैं अनुक्षण जानता हूं
गीत जहां सब कुछ है, तुम धृति - पारमिता
जीवन के सहज छंद
तुम्हें पहचानता हूं
मांगो तुम चाहो जो ः मांगोगे, दूंगा
तुम दोगे जो — मैं सहूंगा आज नहीं
कल सही, कल नहीं
युग-युग बाद ही :
मेरा तो नहीं है यह
चाहे वह मेरी असमर्थता से बंधा हो मेरा यह भाव - यंत्र ?
एक मचिया है सूखी घास-फूस की
उसमें छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान साध्य नहीं मुझसे, किसी से चाहे सधा हो आज नहीं कल सही,
चाहूं भी तो कब तक छाती में दबाए
यह आग -- मैं रहूंगा ? आज तुम शब्द न दो, न दो
Jain Education International 2010_03
यात्रा का प्रारंभ अपने ही घर से
कल भी मैं कहूंगा।
कवि के ये शब्द बड़े गहन हैं।
परमात्मा जब उतरता है, छिपाना मुश्किल । परमात्मा जब उतरता है, तो उसे प्रगट होने देने से रोकना मुश्किल। परमात्मा जब उतरता है, तो प्रगट होगा ही ।
एक मचिया है, सूखी घास-फूस की
मेरा यह भाव-यंत्र
चाहे वह मेरी असमर्थता से बंधा हो मेरा तो नहीं है यह
उसमें छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान
साध्य नहीं मुझसे, किसी से चाहे सधा हो आज नहीं
कल सही,
चाहूं भी तो कब तक छाती में दबाए
यह आग — मैं रहूंगा
आज तुम शब्द न न दो
कल भी मैं कहूंगा।
जिसके जीवन में परमात्मा उतरा है, उसे खोजना ही पड़ेगा संवाद का कोई उपाय। उसे शब्द खोजने ही पड़ेंगे, क्योंकि उसे बांटना पड़ेगा। उसे साझीदार बनाने ही होंगे।
यहां मैं बोले चला जा रहा हूं, सिर्फ इसीलिए कि तुम साझीदार बनो । निमंत्रण है मेरा कि जो मुझे हुआ है, चाहो तो तुम्हें भी हो सकता है। आग यहां लगी है, एक चिनगारी भी तुम ले लो तो तुम्हारे भी सूर्य प्रज्वलित हो जाएं। दीया यहां जला है, तुम जरा मेरे पास आ जाओ, या मुझे पास आ जाने दो, तो तुम्हारा दीया भी जल जाए । जलते ही मेरा न रह जाएगा । जलते ही तुम पाओगे तुम्हारा ही था, सदा से तुम्हारा था।
और
पूछा है कि आपकी उपस्थिति में एक विशेष आनंददायक गंध मिलती है और कभी आश्रम में, कभी ध्यान के समय में भी मिलती है। वह गंध भी तुम्हारी ही है। कस्तूरी कुंडल बसै। इसमें मेरी चेष्टा इतनी ही है कि तुम्हें तुम्हारी तरफ उन्मुख कर दूं, कि तुम्हें धक्का दे दूं तुम्हारी तरफ। कहां भागे फिरते हो ? कहां ढूंढ़ते हो कस्तूरी? तुम्हारी ही नाभि में छिपी है। हां, कभी-कभी मुझे सुनते-सुनते तुम्हें गंध आ जाएगी। तुम सोचोगे, मेरी है। तुम्हारी है ! तुम शांत हो गये सुनते-सुनते, थिर हो गये
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