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________________ 36 जिन सूत्र भाग: 2 सुनते-सुनते सुनते-सुनते तन्मयता जगी, उस तन्मयता में तुम्हारी ही गंध ने तुम्हें छू लिया और भर दिया । इसीलिए तो कभी ध्यान में भी उठेगी। अगर मेरी होती तो तुम्हारे ध्यान में कैसे उठती ! मेरा कुछ लेना-देना नहीं। मैं तो दर्पण हूं, तुम अपने को ही देख लो। दर्पण से ज्यादा नहीं। पर उतना ही प्रयोजन है। मैं यहां नहीं हूं। दर्पण कुछ होता थोड़े ही है, दर्पण तो एक खालीपन है। तुम हटे कि दर्पण खाली । तुम आए कि दर्पण भरा लगता है। सुना है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन एक राह से गुजरता था। एक दर्पण पड़ा मिल गया । उठाकर देखा । कभी दर्पण इसके पहले उसने देखा न था । सोचा, अरे! तस्वीर तो मेरे पिताजी की मालूम पड़ती है। मगर जवानी की होगी। हद्द गयी! मैंने कभी सोचा भी न था कि मेरे पिताजी और तस्वीर उतरवाएंगे ! ऐसे रंगीन तबीयत के तो आदमी न थे! मगर मिल गयी तो अच्छा हुआ। झाड़-पोंछकर खीसे में रखकर घर चला आया । कहीं बच्चे, पत्नी फोड़-फाड़ न दें, खो-खवा न दें, ऊपर चढ़ गया, छप्पर में छिपाकर रख आया। लेकिन पत्नी से कभी कोई पति कुछ छिपा पाया है! पत्नी ने देखा, कुछ छिपा रहा है। रात जब मुल्ला सो गया तो वह उठी, दीया जलाया, छप्पर के पास गयी, निकाला, देखा; तो उसने कहा अरे ! तो इस औरत के पीछे दीवाना है ! आज पता चला ! दर्पण हूं मैं । तुम जो लेकर आओगे वही तुम्हें दिखायी पड़ जाएगा। दर्पण से ज्यादा नहीं। इसलिए किन्हीं - किन्हीं क्षणों में जब तुम अपनी ऊंचाई पर होओगे, तो तुम्हें अपनी ऊंचाई भी मुझमें दिखायी पड़ जाएगी। और किन्हीं - किन्हीं क्षणों में जब तुम अपनी नीचाई पर होओगे, तो तुम्हारी नीचाई भी मुझमें दिखायी पड़ जाएगी। तो जो जैसा आता है वैसा, वैसा ही मुझमें देखकर लौट जाता है। किन्हीं गहन क्षणों में जब तुम अपनी आखिरी ऊंचाई पर छलांग लेते हो, क्षणभर को उड़ते हो आकाश में, तब तुम्हें ऐसा लगेगा कि ये ऊंचाइयां मेरी तो नहीं हो सकतीं; तो तुम सोचोगे कि शायद किसी और की, किसी और ने दिखा दीं। लेकिन स्मरण रखना, तुम्हारी ही ऊंचाइयां हैं, तुम्हारी ही नीचाइयां हैं; मुझ पर मत थोपना। क्योंकि उस थोपने में भ्रांति हो जाती है। उस थोपने में बड़ी भूल हो जाती है। Jain Education International 2010_03 हां, मेरी निकटता में तुम्हें कुछ दिखायी पड़ सकता है। तो न तो इस दर्पण की पूजा करना। क्योंकि तुम सोचोगे, यह गंध इसी दर्पण से उठी; यह स्वाद इसी दर्पण से आया। इस दर्पण की पूजा में मत पड़ना। और न नाराज होकर इस दर्पण को तोड़-फोड़ देना। इन दोनों से बचना। आखिरी सवाल: आपने कहा कि संन्यास सत्य का बोध है। फिर क्या संन्यास के लिए गैरिक वस्त्र और माला भी अनिवार्य हैं? और क्या कोई व्यक्ति बिना दीक्षा लिए आपके बताए मार्ग पर नहीं चल सकता है ? कृपाकर मार्गदर्शन करें। मार्गदर्शन के बिना भी चलो न ! मार्गदर्शन की क्या जरूरतहै? जब दीक्षा के बिना चल सकते हो... । दीक्षा और क्या है ? अत्यंत समीपता से लिया गया मार्गदर्शन है। बहुत पास से, बहुत करीब से, बहुत पास से सुना गया मार्गदर्शन है। श्रद्धा से सुना गया मार्गदर्शन है। दीक्षा और क्या है? मुझसे पूछते हो, मार्गदर्शन दें। तुम लेने को तैयार हो ? वही लेने की तैयारी तो संन्यास की घोषणा है कि मैं तैयार हूं, आप दें। मेरी झोली फैली है, आप भरें। फिर मैं अगर कंकड़-पत्थर से भी भर दूं, तो भी अगर तुमने श्रद्धा से स्वीकार किया हो तो वे कंकड़-पत्थर तुम्हारे लिए हीरे-मोती हो जाएंगे। लेकिन अगर तुमने अश्रद्धा से झोली फैलायी हो और हीरे-मोतियों से भी भर दूं, तो कंकड़-पत्थर हो जाएंगे। क्योंकि तुम्हारी श्रद्धा बड़ी शक्ति है। तुम्हारी श्रद्धा बड़ा रूपांतर करनेवाली ऊर्जा है। सब कुछ तुम पर निर्भर है, अंततः तुम पर निर्भर है। अगर पात्र गलत हो, अगर पात्र दूषित हो, अगर पात्र गंदा हो, तो उसमें फिर शुद्ध जल न भरा जा सकेगा। मैं तो शुद्ध ढालूंगा, लेकिन वह तुम तक पहुंच न पाएगा। सब कुछ तुम पर निर्भर है। अगर मार्गदर्शन चाहिए, तो करीब आओ। संन्यास तो सिर्फ करीब आने की तुम्हारी तरफ से घोषणा है। गैरिक वस्त्र, माला तो केवल प्रतीक हैं। लेकिन तुम... और जीवन के अंगों में तुम प्रतीकों को सत्कारते हो या नहीं सत्कारते हो? तुम्हारा किसी से प्रेम हो गया, तो तुम कुछ भेंट ले जाते हो कि नहीं ले जाते हो? फूल ले गये तुम, गुलाब का एक फूल ले गये - अपनी प्रेयसी को देने या प्रेमी को देने। वह प्रेयसी तुमसे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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