SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिन सूत्र भाग : 2 धर्म के जगत के आइंस्टीन हैं, और आइंस्टीन विज्ञान के जगत विपरीत के चक्के से छूटना हो जाता है। का महावीर है। एक। और इसीलिए महावीर ने ध्यान को सामायिक कहा। दूसरी बात, समय शब्द टाइम शब्द से ज्यादा बहुमूल्य है। सामायिक है समय तक पहुंचने का उपाय। सामायिक है टाइम का तो सिर्फ इतना ही अर्थ होता है, जितना काल का होता सम्यकत्व तक पहुंचने की विधि। धीरे-धीरे डूबो और शांत है। टाइम का ठीक अनवाद करना हो तो समय नहीं करना बनो। जैसे-जैसे शांत बनोगे, जैसे-जैसे तरंगें कम होंगी. चाहिए, काल। काल का अर्थ होता है, जो बीत रहा है। काल वैसे-वैसे भीतर का स्वाद आना शुरू होगा। का अर्थ होता है, जो जा रहा है। समय का अर्थ होता है, जो थिर | महावीर ने बहुत सोचकर ही समय नाम दिया आत्मा को। है। समता से बना है, सम्यकत्व से बना है समय। संतुलन से उसका वैज्ञानिक अर्थ भी है, उसका आध्यात्मिक अर्थ भी है। बना है। संबोधि से बना है। जो मूल धातु संबोधि में है, वैज्ञानिक अर्थ तो मैंने कहा, जो आइंस्टीन का अर्थ है, वही सम्यकत्व में है, समता में है, समाधि में है, वही मूल धातु समय महावीर का है। और आध्यात्मिक अर्थ मैंने कहा, जो कृष्ण का म' का ठीक-ठीक अनुवाद समय नहीं है। अर्थ है-योग को सम्यकत्व कहने का, समत्व कहने और समय का ठीक अनुवाद 'टाइम' नहीं है। का-वही महावीर का अर्थ है। समय बड़ा बहुमूल्य शब्द है। काल तो केवल इसकी एक भाव-भंगिमा है। काल से ज्यादा छिपा है समय में। अगर समय दूसरा प्रश्न : मेरी पत्नी मूर्तिपूजा करती है, लेकिन मैं उसे को जानना हो, तो सम्यकत्व को उपलब्ध होना पड़ेगा। इतने | ध्यान करने को कहता हूं और कहता हूं कि मूर्तिपूजा व्यर्थ है। शांत हो जाना पड़ेगा कि जहां कोई विचार की तरंग न रह जाए। पत्नी उत्तर देती है कि मीरा भी तो मूर्तिपूजा करती थी। मेरे पास तब तुम्हें पहली दफे पता चलेगा, तुम किस धातु से बने हो। तब इसका जवाब नहीं है। कृपया बतायें कि यह बात कहां तक तुम्हें पता चलेगा तुम कौन हो। समता की आखिरी घड़ी में ही ठीक है, और यह कि पत्नी को कैसे समझाऊं? तुम्हें अपने समय का बोध होगा। इसलिए महावीर ने आत्मा को समय कहा। समता की अनुभूति। मनुष्य को सदा एक पागलपन सवार रहता है। जो मैं मानता कृष्ण ने कहा है, समत्व योग है। समत्व को ही योग कहा है। हूं, वह दूसरा भी माने। जो मैं मानता हूं, वही ठीक है। जो दूसरा इतने सम हो जाओ तुम कि द्वंद्व के जगत के पार हो जाओ। मानता है, वह गलत है। यह अहंकार की ही घोषणा है। साधारणतः हम बंटे हैं। साधारणतः हमारा चुनाव है। कोई स्त्री महावीर ने कहा है, दूसरा भी ठीक है। है, कोई पुरुष है। आत्मा न स्त्री है, न पुरुष। इसलिए समय है। मैं ही ठीक हूं, ऐसी धारणा निर्बुद्धिपूर्ण है। फिर अगर तुम्हारी आत्मा का जो अनुभव है, वहां न तो तुम स्त्री रह जाओगे, न | पत्नी को मूर्तिपूजा में आनंद मिल रहा है, तो तुम बाधा पुरुष। दोनों द्वंद्व गये। तुम दोनों द्वैत के पार हुए-अद्वैत हुए। डालनेवाले कौन? तुम्हें प्रयोजन क्या? सिर्फ पति होने के जिस क्षण तुम्हें पता चलेगा तुम्हारे वास्तविक स्वरूप का, उस | कारण? तुम्हें अड़चन मालूम हो रही है कि पत्नी पर पूरा कब्जा क्षण न तुम स्त्री होओगे, न पुरुष। उस क्षण तुम न जवान नहीं है। मैं ध्यान करता हूं, पत्नी मूर्तिपूजा करती है! तुम्हें ध्यान | होओगे, न वृद्ध। उस समय तुम न गोरे होओगे, न काले। उस में रस आ रहा है, ध्यान करो। पत्नी को मूर्तिपूजा में रस आ रहा क्षण तुम न स्वस्थ होओगे, न अस्वस्थ। सब द्वंद्व गया, समता है, मूर्तिपूजा करने दो।। आयी। उस क्षण न तुम सुखी होओगे, न दुखी। उस क्षण न रात रस असली बात है। रसो वै सः। उस परमात्मा का स्वभाव होगी, न दिन। उस क्षण न जन्म होगा, न मृत्यु। उस क्षण गये | रस है। कैसे रस मिलता है, यह बात गौण है। आम खाने हैं या सारे द्वंद्व। उस क्षण बस निर्द्वद्व-भाव शेष रहा। इसलिए महावीर गुठलियां गिननी हैं? ने आत्मा को समय कहा। समता, सम्यकत्व। लेकिन लोग गठलियों का ढेर लगाये बैठे हैं। उसी को वे ऐसा गहरा सम्यकत्व कि जहां अतिक्रमण हो जाता है। दर्शनशास्त्र कहते हैं। आम खाना तो भूल ही गये। तुम्हारी पत्नी 144 Jair Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy