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________________ प्रेम है द्वार तुमसे बेहतर है। कम से कम यह तो नहीं कहती कि तुम ध्यान सामान्य जीवन में भी आत्मा प्रविष्ट होती है और देह धरकर छोड़ो। तुमसे ज्यादा समतावान है। पत्नियां अकसर ऐसी होती | बाहर आती है। जब प्रविष्ट होती है आत्मा स्त्री के गर्भ में, तब नहीं, तुम सौभाग्यशाली हो। पत्नियां इतनी आसानी से कब्जा | अरूप होती है। निराकार होती है। स्त्री उसे रूप देती है। नहीं छोडतीं। मेरे पास जो मामले आते हैं. दस मामलों में नौ | आकार देती है. रेखाएं देती है। देह देती है। पत्नियों के होते हैं कि वे पतियों पर जबर्दस्ती करती हैं। एक पति | तो स्त्री के अस्तित्व में ही देह देने का ढंग छिपा हुआ है। अगर का होता है कि वह पत्नी पर जबर्दस्ती करता है। | वह ध्यान भी करेगी, तो उसके गर्भ में भगवान रूप ले लेंगे। वह इस दृष्टि को छोड़ो। स्वतंत्रता प्रेम का अनिवार्य लक्षण है। | उसके देखने का ढंग है। पुरुष को समझ में नहीं आता कि क्या अगर तुम पत्नी को प्रेम करते हो, चाहते हो, उसका शुभ चाहते | पत्थर की मूर्ति के सामने बैठकर पूजा कर रही हो! पत्थर की मूर्ति हो, मंगल चाहते हो, तो उसे स्वतंत्रता दो। हालांकि तुम्हारा मन | तुम्हें है। जिसकी आंखें प्रेम से गीली हैं, उसके लिए पत्थर की यही कहेगा, मंगल चाहते हैं इसीलिए तो ध्यान करवा रहे हैं। | मूर्ति मुस्कुराती है, गाती है, गुनगुनाती है। बातचीत चलती है। तम्हारा मन कहेगा. मंगल चाहते हैं इसीलिए तो मर्तिपजा से | ऐसा ही नहीं कि स्त्री ही बोलती है, परमात्मा भी उससे उसी ढंग छुटकारा दिला रहे हैं, नहीं तो कौन फिजूल मेहनत करता! उसके | | से बोलता है। सच तो यह है कि अगर स्त्री ठीक प्रार्थना में हो तो ही हित में! लेकिन उसका हित वही निर्णय कर सकेगी, तुम न | कम ही बोलती है। रूठ-रूठ जाती है, परमात्मा मनाता है। निर्णय कर सकोगे। तुम उसे न समझ पाओगे। जरूरत भी तुम्हें समझने की नहीं बड़ा कठिन है दूसरे के स्थान पर खड़े होकर दूसरे की स्थिति है। तुम्हारा मार्ग ध्यान है। पुरुष का मार्ग ध्यान है। तुम अगर को देखना। वह सबसे बड़ी कला है। तुम स्त्री होकर देखो। तब प्रार्थना भी करोगे, तो भी तुम्हारा आकर्षण ध्यान की तरफ लगा तुम्हें समझ में आयेगा कि ध्यान और मूर्तिपूजा का फर्क क्या है? रहेगा। तुम प्रार्थना भी ध्यान के लिए ही करोगे। तुम मूर्तिपूजा-पूजा का भाव ही स्त्रैण-ध्यान है। वह स्त्री का ढंग है किसी तरह विचार से छुटकारा हो जाए, किसी तरह यह सब ध्यान करने का। स्त्री ध्यान भी करे, तो वह प्रार्थना से भिन्न नहीं तरंगें समाप्त हों—निस्तरंग हो जाऊं! स्त्री कहती है, कैसे यह हो सकता। प्रेम उसका स्वभाव है। पुरुष के लिए प्रेम और सब तरंगें रसपूर्ण हो जाएं। निस्तरंग होने की कोई आकांक्षा नहीं बहुत-सी चीजों में एक घटना है। स्त्री के लिए प्रेम उसका है। तुम्हारी आकांक्षाएं अलग हैं। होनी ही चाहिए। पुरुष और सब-कुछ है। पुरुष चौबीस घंटे में कुछ क्षण प्रेमपूर्ण होता है, स्त्री बड़े विपरीत हैं। इसीलिए तो उनमें आकर्षण है। विपरीत में लेकिन प्रेम सब कुछ नहीं है। और भी बहुत कुछ है पुरुष को आकर्षण होता है, खिंचाव होता है। इसीलिए तो पुरुष स्त्री पर करने को। स्त्री के लिए प्रेम सब-कुछ है, उसका सर्वस्व है। आसक्त है, स्त्री पुरुष पर आसक्त है। अगर बिलकुल एक जैसे ध्यान की बात तो स्त्री को जमेगी ही नहीं। वह ध्यान भी करेगी | होते तो आकर्षण टूट जाता। विपरीत खींचता है। लेकिन इस तो नाम ही ध्यान रहेगा, होगी प्रार्थना। ध्यान में भी आंसू बहेंगे। विपरीतता को समझना चाहिए। ध्यान में भी रस उमगेगा। ध्यान में भी मूर्ति प्रविष्ट हो जाएगी। स्त्री तोड़ने की कोशिश करती है पति को कि वह भी उसी के ध्यान में भी परमात्मा रूप धर लेगा। स्त्री के पास रूप देने की | ढंग से चले, पति तोड़ने की कोशिश करता है स्त्री को कि वह भी कला है। उसके ढंग से चले। यहीं भ्रांति हो जाती है, यहीं गलती हो जाती इसलिए तो गर्भ है उसके पास। है। यहीं महावीर को समझना बड़ा उपयोगी है। महावीर ने जो निराकार आत्मा उतरती है और स्त्री के गर्भ में रूप ले लेती है। दृष्टि दी है, वह है स्यातवाद। वे कहते हैं, दूसरा भी ठीक होगा। मूर्ति का जन्म हो जाता है। पुरुष के पास वैसी क्षमता नहीं है। होना चाहिए। नहीं तो दूसरा टिका क्यों रहेगा उस पर? मूर्ति वह निराकार को आकार बनाने में कुशल नहीं है। वह निराकार इतने दिन से मिटायी जाती रही है, फिर भी बनी है। कितनी को आकार देने में समर्थ नहीं है। स्त्री की बड़ी सामर्थ्य है। मूर्तियां तोड़ी गयीं, फिर-फिर बन जाती हैं। जब तक स्त्री है, उसके पास कुछ है, जिससे निराकार आकार बन जाता है। मूर्ति टूट नहीं सकती। कोई उपाय नहीं। स्त्री को ही तोड़ डालो, 145 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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