SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 32 जिन सूत्र भाग: 2 फिर आइंस्टीन की खोजों ने एक बड़ा अनूठा आयाम खोला। वह आयाम यह था कि संसार जैसा है वैसा ही नहीं है, विस्तीर्ण हो रहा है। 'एक्सपैंडिंग यूनिवर्स ।' फैलता जा रहा है ! बड़ी तीव्र गति से फैल रहा है! जैसे कोई छोटा बच्चा अपने गुब्बारे में हवा भर रहा हो और गुब्बारा बड़ा होता जा रहा हो ! तब ब्रह्म शब्द के नये अर्थ उभरकर आए। ब्रह्म शब्द का अर्थ होता : 'दि एक्सपैंडिंग वन ।' वह जो | फैलता ही जा रहा है । ब्रह्म का अर्थ है : विस्तीर्ण होता जा रहा है। जो ठहरा नहीं है। जो कहीं ठहरता नहीं। जो किसी सीमा को सीमा नहीं बनाता, हमेशा सीमा के ऊपर से बह जाता है। अगर तुम्हें परमात्मा को जानना हो, तो छोटे पैमाने पर ही सही, लेकिन तुम भी सीमा मत बनाना। फैलना, फैलते जाना! सुगंध हो तुम्हारे पास, बांटना हवाओं को ! प्रकाश हो, बांट देना रास्तों पर! बोध हो, दे देना दूसरों को ! जो कुछ भी तुम्हारे पास हो... ! । और ऐसा तो कौन है मनुष्य जिसके पास कुछ भी न हो ! ऐसा मनुष्य है ही नहीं कोई कि जिसके पास कुछ भी न हो परमात्मा तो सभी के भीतर है, इसलिए कुछ न कुछ तो होगा। खोजना। तुम अकारण नहीं हो सकते। तुम्हारे द्वारा उसने कोई गीत गाना ही चाहा है। तुम्हारे द्वारा उसने कोई नाच नाचना ही चाहा है। तुम्हारे द्वारा उसने कोई फूल खिलाना ही चाहा है। व्यर्थ तुम नहीं हो सकते। तुम्हारी कोई नियति है । तुम्हारे भीतर छिपा हुआ कोई राज है । खोलो, खोजो ! मेरे लिए धर्म उसी रहस्य को खोजने की कुंजी है। तुम तुम बनो! तुम्हारी नियति खुले, बिखरे, फैले। तुम्हारे जीवन में बाढ़ आए। इसी को तो महावीर ने कहा कि मुनि जैसे-जैसे उस अश्रुतपूर्व को सुनता, जानता; जैसे-जैसे अतिशय रस के अतिरेक से भरता, वैसे-वैसे प्रफुल्लित होता; वैसे-वैसे उत्साहित होता; वैसे-वैसे फूल खिलने लगते हैं, कमल खिलने लगते हैं, पंखुड़ियां खुलने लगती हैं, कलियां फूल बनतीं। फैलो ! कली भत रह जाना। वही दुर्भाग्य है। मेरे लिए अधार्मिक आदमी वही है, जो कली रह गया। धार्मिक वही है, जो फूल बन गया। फूलो! फैलो ! कोई सीमा मत बांधो। बाढ़ बनो। और तुम जितना फैलोगे, तुम पाओगे उतनी ज्यादा फैलने की क्षमता आने लगी। तुम जितना बांटोगे, Jain Education International 2010_03 उतना पाओगे मिलने लगा । और कुछ भी पाप नहीं है, रोक लेना पाप है। अर्थशास्त्री कहते हैं कि रुपया जितना चले उतना समाज संपन्न होता है । इसीलिए तो रुपये को 'करेंसी' कहते हैं । 'करेंसी' का मतलब, जो चलता रहे, भ्रमण करता रहे। अब समझ लो कि दस आदमी हैं गांव में और दसों के पास दस रुपये हैं, वे दसों अपने रुपयों को रखकर बैठ गये हैं, तो गांव में केवल दस रुपये हैं। फिर दसों अपने रुपयों को चलाते हैं। एक-दूसरे से सामान खरीदते हैं। एक का रुपया दूसरे के पास जाता है, दूसरे का तीसरे के पास जाता है- — दस रुपये के सौ हो जाते हैं, हजार हो जाते हैं। क्योंकि रुपया आता है, जाता है। पकड़े रहो, तो एक ही रहता है। आता रहे, जाता रहे, तो अनेक हो जाते हैं। तुम गड़ाकर रख दो जमीन में, 'करेंसी' 'करेंसी' न रही, मर गयी । इसीलिए तो कंजूस आदमी से अभागा आदमी दुनिया में दूसरा नहीं है । 'करेंसी' मार डालता है। चलने नहीं देता । चलन को रोक देता है। नदी को बहने नहीं देता, डबरा बना लेता है । फिर डबरा सड़ता है । फिर डबरे में घास-पात गिरते हैं, बदबू आती है। कृपण आदमी में बदबू आती है। इसीलिए तो दानी की इतनी महिमा रही है। दान को धर्म का आधार कहा है; लोभ को पाप का । कारण, लोभ रोक लेता है; दान बांट देता है। दान से चीजें फैलती हैं। और जो बात बाहर की संपदा के संबंध में सही है, मैं तुमसे कहना चाहता हूं, भीतर की संपदा के संबंध में और भी ज्यादा सही है। जब बाहर की संपदा रोक लेने से मर जाती है— मरी - मरायी संपदा भी रोक लेने से मर जाती है— जब बाहर की संपदा चलाने से मरी-मरायी संपदा भी जीवित मालूम होने लगती है, तो भीतर की थोड़ी सोचो ! वहां का धन तो जीवंत धन है। उसे रोका गया ! उसे चलने दो। चलन में रहने दो। 'करेंसी' बनाओ। एक ही पाप है मेरी दृष्टि में। और वह पाप है, जो तुम्हें मिला है भीतर, उस पर तुम सांप की तरह कुंडली मारकर बैठ गये हो, तो पाप है। उसे बांटो ! परमात्मा बांटने के नियम को मानता है, फैलने के नियम को मानता है। तुम भी फैलो ! नहीं, स्वाद में कोई पाप नहीं; लेकिन स्वाद अकेले मत लेना। बांटना । भोजन में कोई पाप नहीं है । उसी की भूख है! लेकिन जो तुम्हारे पास हो उसे बांटकर खाना । इतना भर स्मरण रहे ि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy