SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यात्रा का प्रारंभ अपने ही घर से ऋग्वेद में वचन है : 'केवलाघो भवति केवलादि।' अकेले शराब में भी सौंदर्य आ गया। मत खाना, बांटकर खाना। अकेले खाने में पाप है। खाने में पाप पाप भी पुण्य हो सकता है। पुण्य भी पाप हो सकता है। नहीं। अन्न तो ब्रह्म है। लेकिन अकेले खाने में पाप है। छीनकर जीवन बड़ा जटिल है। जीवन गणित जैसा नहीं है। अगर तुमने खाने में पाप है। चुराकर खाने में पाप है। बांटकर खाना। गणित की तरह पकड़ा तो तुम चूक जाओगे। तो कभी-कभी तुम साझेदार बनाकर खाना। फिर पाप खो गया। पुण्य भी कर सकते हो और वह पाप हो। और कभी-कभी तुम जितना तुम बांट सको, जो भी तुम्हारे पास है, उसे तुम | पाप भी कर सकते हो और पुण्य हो जाए। अहर्निश बांटो। गा सकते हो, तो गाओ-गीत बांटो। नाच | मैंने उनसे कहा, पुण्य हो गया। आप बुलाकर पीते हैं, अकेले सकते हो, तो नाचो-नाच बांटो। जो भी तुम्हारे पास है, उसे नहीं पी सकते, छिपकर नहीं पी सकते–बस, ठीक है। फैलते बांटो। बस पुण्य हो जाएगा। बांटने में पुण्य है। रोक लेने में हैं-शुभ है। आज यह शराब पीकर फैल रहे हैं, कल और बड़ी पाप है। | शराब पीकर भी फैलेंगे। फैलना तो जारी है। सागर की तरफ यह बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र है। नदी ठहर जाए तो पाप है। नदी चल तो रहे हैं। ठहरकर डबरा बन जाए तो पाप है। बहती रहे, सागर की तरफ यह ऋग्वेद का सूत्र : 'केवलाघो भवति केवलादि'-वही उंडलती रहे, सागर में जाकर उतरती रहे-फिर पाप नहीं। पापमय है भोजन, जो अकेले कर लिया जाए, बांटा न जाए। जो तुम्हारे जीवन में बहाव रहे! भोजन करो, लेकिन...तुमने भी हो तुम्हारे पास–भोजन की ही बात नहीं है—जो भी रसपूर्ण खयाल किया, पशुओं को देखा, पशु जब भी भोजन करते हैं तो हो, जो भी आनंदपूर्ण हो, उसे छिपाकर मत बैठना। प्रकाश उठाकर भोजन अकेले में भाग जाते हैं। बांट नहीं सकते, | तुम्हारे भीतर जगे तो उसे ढांक मत लेना। भयभीत हैं। दूसरा दुश्मन है! आदमी अकेला प्राणी है संसार | जीसस ने कहा है अपने शिष्यों को कि जब तुम्हारे भीतर में, जो दूसरे को निमंत्रण देकर भोजन करता है। बुला लाता है। परमात्मा का स्वर गूंजे, तो चढ़ जाना छप्पर पर, जितने जोर से मेरे एक प्रोफेसर थे। बहुत प्यारे आदमी थे! दुर्गुण एक चिल्ला सको, चिल्लाना; ताकि जो गहरी नींद में सोए हैं, वे भी था-शराबी थे। मैं उनके घर एक बार मेहमान हुआ। था सुन लें, वे भी वंचित न रह जाएं। उनका विद्यार्थी में, लेकिन उनका बड़ा सम्मान मेरे प्रति था। वे तो जो तुम्हारे पास हो, उसे बांटना, फैलाना! बड़े बेचैन हुए कि वे शराब कैसे पीएंगे; अब ये कुछ दिन मैं संस्कृत का शब्द 'ब्रह्म' बड़ा प्रीतिकर है! इसका अर्थ होता उनके घर रहूंगा। मैंने उन्हें कुछ बेचैन देखा। मैंने पूछा कि है जो फैलता ही चला जाता है; जो विस्तीर्ण ही होता चला मामला क्या है? आप कुछ बेचैन मालूम होते हैं। उन्होंने कहा जाता है। आधुनिक विज्ञान ने ब्रह्म शब्द को बड़ा नया अर्थ दे कि तुमसे छुपाना क्या! मुझे शराब पीने की आदत है। तो मैंने | दिया है। आइंस्टीन के पहले तक ऐसा समझा जाता था कि कहा, आप पी सकते हैं। इसमें परेशान होने की क्या बात है? | संसार कितना ही बड़ा हो, फिर भी इसकी सीमा तो होगी ही। उन्होंने कहा कि परेशान होने की बात है कि मैं अकेला नहीं पी हम न पा सकते हों सीमा, हमारी सामर्थ्य न हो, हमारे साधन सकता। दो-चार-दस को बुलाता है, तब पी सकता हूं। वह सीमित हों, पर फिर भी कहीं इसकी सीमा तो होगी ही। यह बात हुल्लड़ मचेगी, तुम्हें अच्छा न लगेगा। खयाल में थी। और यह भी बात खयाल में थी कि यह संसार मैंने कहा, फिर शराब पाप न रही, फिर पुण्य हो गयी। मैं भी जैसा है, बस वैसा ही है। अब इसमें नया क्या हो सकता है! बैलूंगा और मजा लूंगा। पी तो नहीं सकता, क्योंकि मैंने कोई नया आएगा कहां से? संसार के बाहर तो कुछ और है नहीं। तो और शराब पी ली है और अब कोई शराब उसके ऊपर नहीं हो जो है, है। इसी में रूपांतरण होता रहता है, रूप बदलते रहते हैं। सकती। लेकिन बैलूंगा। यह तो पुण्य हो गया, यह तो प्रार्थना हो | नदी का जल सागर में गिर जाता है। सागर का जल बादलों में गयी कि आप लोगों को बुलाकर पीते हैं। यह तो मुझे अत्यंत उठ जाता है। बादलों का जल नदी में गिर जाता है। लेकिन जल खुशी की बात मालूम पड़ी कि आप अकेले नहीं पी सकते। तो तो घूमता रहता है-वही का वही है। 31 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy