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________________ जिन सूत्र भाग : 2 तीसरा प्रश्न : 'रसो वै सः' के संदर्भ में बताएं कि क्या स्वाद बिस्तर बिछाओ, तो उसी को देखना। जागना भी उसी में; जब को भी परमात्म-अनुभूति का साधन बनाया जा सकता है? आंख खोलो, तो उसी को देखना। यही तो अर्थ था प्राचीन परंपराओं का कि लोग प्रभु का स्मरण करते सोते, राम-राम बनाए जाने का सवाल ही नहीं है। सभी अनुभव उसी के जपते हुए सोते। यह कोई जपने की बात नहीं है कि तुमने साधन हैं। स्वाद भी। राम-राम शब्द दोहरा दिया और सो गये। भाव दशा की। कि मैं तुम्हें अस्वाद नहीं सिखाता। मैं तुम्हें परम स्वाद सिखाता | राम का नाम ही जपते उठते। भाव दशा की! आंख खोलते तो हूं। आंख भी उसी को देखे। कान भी उसी को सुनें। हाथ उसी उसी को देखते; आंख बंद करते तो उसी को देखते। उसी में है को छुएं। रस उसी का ही तुम्हारी जिह्वा में उतरे, तुम्हारे कंठ के नींद, उसी में है जागृति। भोजन करते, तो भी उसी के पार जाए। तुम उसे ही खाओ और तुम उसे ही पीओ, और तुम नाम-स्मरण से करते; थोड़ा भोग पहले उसे लगा देते। पहले उसे ही बिछाओ और तुम उसे ही ओढ़ो। वही हो जाए तुम्हारा भोग, फिर भोजन; तो भोजन भी पवित्र हो गया। तो फिर भोजन सब कछ। तुम उसी में स्नान करो, तुम उसी में श्वास लो! तम | भी प्रार्थना हो गयी। उसी में चलो, उसी में बैठो; उसी में बोलो, उसी में सुनो! इसे तुम ऐसा समझो कि भूख लगे तुम्हें, तो भी जानना उसी को तुम्हारा सारा जीवन उसी से भर जाए। क्योंकि परमात्मा कोई भूख लगी तुम्हारे भीतर। सच भी यही है, वही भूखा होता है। खंड नहीं है कि तुम गये मंदिर, घंटा-भर परमात्मा को दे दिया वही जीता है। वही जन्मता है। वही विदा होता है। वही शरीर में और तेईस घंटे अपने लिए बचा लिये। यह तो धोखा है। ऐसे आया, वही शरीर से जाएगा। उसकी ही भूख, उसकी ही कहीं कुछ जीवन में क्रांति नहीं होती। यह तो तुमने हिसाब कर | प्यास। तो उठना-बैठना ही फिर पर्याप्त आराधना हो जाती है। लिया कि चलो एक घंटे परमात्मा को दे दें, दूसरी दुनिया भी आराधना ऐसी अनुस्यूत हो जाए जैसे श्वास। याद भी अलग से सम्हाल ली। यह दुनिया तो तेईस घंटे सम्हाल ही रहे हैं। कुछ न करनी पड़े, तो ही तुम परम मुक्ति के स्वाद को चख सकोगे। वह एक घंटा महंगा नहीं है। और उस एक घंटे भी तुम परमात्मा वह रसरूप है। इसलिए जहां भी रस मिले, उसी को समर्पण के मंदिर में हो कैसे सकते हो? जो आदमी तेईस घंटे परमात्मा कर देना। भोजन में रस आए, प्रसन्न होना कि प्रभु प्रसन्न हुआ, के विपरीत जी रहा हो, वह एक घंटे परमात्मा में जीएगा कैसे? उसे रस मिला। तम केवल साधन हो। तम्हारे माध्यम से उसने ऐसा समझो कि गंगा बस काशी में आकर पवित्र हो जाती आज फिर भोजन किया। तुम माध्यम हो। तुम्हारे माध्यम से हो—पहले अपवित्र, बाद में फिर अपवित्र-ऐसा कैसे होगा? आज उसने फिर बगीचे के फूलों की सुगंध ली। वही तो तुम्हारे गंगा तो सतत धारा है। अगर पहले पवित्र थी. तो ही काशी में भीतर चैतन्य होकर बैठा है। तुम तो मिट्टी के दीये हो; ज्योति तो पवित्र हो सकेगी। और काशी में पवित्र है, तो आगे भी पवित्र ही उसकी है। सब अनुभव उसके हैं। रहेगी। शृंखला है, सातत्य है, सिलसिला है। ऐसा जो व्यक्ति भाव में निमज्जित होने लगे और सब भांति तो ऐसा थोड़े ही है कि तुम मंदिर के द्वार पर आए, बाहर तो | अपने को परमात्मा में गूंथ ले-इसी को महावीर ने कहा, सुई पवित्र नहीं थे; भीतर गये, घंटा बजाया–पवित्र हो गये, प्रार्थना | गिर जाए, बिना धागा-पिरोयी, तो खो जाती है। धागा-पिरोयी कर ली! फिर बाहर आए, फिर चोगा बदल लिया, फिर पवित्र | सुई गिर भी जाए तो नहीं खोती। ऐसा निमज्जित हुआ व्यक्ति हो गए, फिर अपवित्र हो गये, फिर बैठ गये अपनी दुकान पर, | | अगर भटक भी जाए तो नहीं भटकता। क्योंकि ऐसे व्यक्ति के फिर वही करने लगे जो कल तक करते थे। उस मंदिर में जाने ने भटकने का उपाय ही न रहा। यह भटकाव भी उसी का है। अगर तुम्हारे जीवन में कोई रूपांतरण न किया। ऐसे व्यक्ति की नाव मझधार में भी डूब जाए तो उसे चिंता नहीं नहीं. धर्म तो चौबीस घंटे की बात है। तब तो बडी कठिनाई होती। मझधार भी उसी की है। ऐसे व्यक्ति को कोई चिंता होती है। चौबीस घंटे अगर धर्म में जीना हो, तो तुम कहोगे बड़ा ही नहीं। सभी कुछ उसी का है! इस समर्पण-भाव से तुम्हें सब मुश्किल है! इसलिए मैं कहता हूं कि सोना भी उसी में। जब जगह उसी का रस आने लगेगा। 130 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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