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________________ षट पर्दो की ओट में परिणाम का हिसाब न रखे। निष्कपट छोटे बच्चे जैसा हो जाए। तुम्हें यह खयाल ही नहीं है कि तुम्हारे भीतर भी ऐसा ही अपराधी र के बीच कोई द्वंद्व न रहे। एक धारा बहे। पड़ा है। तुम्हारा अपराधी अंधेरे में हो तो ही तुम अपराधी को उस एक धारा के बहने में ही योग उपलब्ध होता है। उस एक क्षमा नहीं करते। और जो अंधेरे में है उसे तुम मिटा न सकोगे। धारा के बहने में ही तुम पहली दफा खंड-खंड नहीं रह जाते, जिसने अपनी शक्ल ठीक से देखी, उसने सारे जगत की शक्लें अखंड बनते हो। तुम्हारे सारे खंड एक महासंगीत में सम्मिलित ठीक से देख लीं। अब वह नाराज नहीं है। अब वह समझ होते हैं। तुम्हारे सारे स्वर एक-दूसरे के विपरीत नहीं रह जाते; सकता है। उन सबके बीच एक संगति, एक संगीत का जन्म होता है। 'साधु गुरुजनों की सेवा...।' 'कार्य में ऋजुता...।' और जहां भी तुम्हें दिखाई पड़े कोई भलाई, कोई भला पुरुष, सरलता, सीधापन। कुछ लोग एढ़े-टेढ़े चलते हैं। उनको कोई जाग्रत पुरुष, कहीं जरा-सी भी झलक दिखाई पड़े तो जाना हो पश्चिम तो पहले पूरब की तरफ जाते हैं। उनको आना महावीर कहते हैं, जो व्यक्ति अपनी अंतरात्मा की खोज में चल हो घर तो पहले बाजार की तरफ जाते हैं। कुछ लोग इरछे-तिरछे रहा है, वह वहां सेवा करने को तत्पर होगा। क्योंकि उस सत्संग चलते हैं। उनकी इरछा-तिरछा चलना आदत हो गई है। से ही आखिरी घटना घटेगी। उस सत्संग से ही तुम्हारे भीतर, तुम भी बहुत बार यही करते हो। किसी से चार पैसे उधार लेने | भीतर जाने की समझ जगेगी। हैं तो तुम सीधे नहीं मांग लेते। तुम पहले कुछ और चालें चलते जो जाग गए हैं, उनके पास बैठकर उनके जागने को पकड़ना हो। पहले तुम भूमिका बनाते हो, फिर भूमिका के पीछे से तुम सीखना चाहिए। जो जाग गए हों, उनकी सेवा करके विनम्रता से धीरे-धीरे जाल फैलाते हो। फिर आखिर में चार पैसे मांगते हो। प्रतीक्षा करनी चाहिए उस अवसर की, जहां उनकी ऊर्जा और सीधा-सीधा...महावीर कहते हैं, व्यवहार में, कार्य में तुम्हारी ऊर्जा में कोई तालमेल बैठ जाएगा। जहां उनकी लहर के ऋजुता! सीधी रेखा। दो बिंदुओं के बीच जो सबसे निकटतम साथ गठबंधन बांधकर तुम भी अंतर्यात्रा पर निकल जाओगे। की दूरी है, वह है सीधी रेखा। ऐसे आड़े-तिरछे चलकर बड़ी | जो तुमसे आगे हों, उनका हाथ पकड़ लेने की चेष्टा करनी लंबी यात्रा होती है। और उस यात्रा में बड़ी ऊर्जा व्यय होती है। चाहिए। और गुरुजनों का हाथ पकड़ना हो तो एक ही उपाय है; 'अपराधियों के प्रति क्षमाशीलता...।' | उसको महावीर सेवा-पूजा कहते हैं। क्योंकि जो भी अपराधी है, ध्यान रखना, वह भी मनुष्य | अब यह बड़ी विचार की जरूरत है इस संबंध में, क्योंकि है तुम्हारे जैसा; तुम्हारी ही कमियों और सीमाओं से भरा | ईसाइयत के प्रभाव के बाद सेवा का अर्थ ही बदल गया। जब हुआ। तो जिस व्यक्ति ने अपने को पहचाना है, वह दूसरे को | जैन साधु के पास जाता है तो उससे पूछो कहां जा रहा है? वह क्षमा करने को सदा तत्पर होगा। क्योंकि वह देखेगा, दूसरे में जो कहता है, साधु की सेवा करने। ईसाइयत के प्रभाव के बाद सेवा हो रहा है, वह मुझमें हो चुका है। दूसरे में जो हो रहा है, वह | का अर्थ हो गया है। कोढ़ी की सेवा, बीमार की सेवा, मलेरिया मुझमें भी हो सकता है। ठीक-ठीक अपने को जाननेवाला है, प्लेग है, हैजा फैला है, तो सेवा। ईसाइयत ने सेवा का बड़ा व्यक्ति सारे मनुष्यों को जान लिया। | साधारण अर्थ लिया है। जिसकी कहीं कोई पीड़ा है, जिसको हम | वह चोर को भी क्षमा कर सकेगा क्योंकि वह जानता है, चोर दया कहते हैं, उसको ईसाइयत सेवा कहते हैं। दया तुम उसकी अपने भीतर भी छिपा है। वह क्रोधी को भी क्षमा कर सकता है तरफ जाते हो, जो तुमसे पीछे है। क्योंकि वह जानता है, क्रोध अपने भीतर भी कहां मिट गया है? - महावीर सेवा कहते हैं उसकी तरफ जाने को, जो तुमसे आगे और जैसे-जैसे तुम अपराधी को क्षमा करने लगते हो, तुम्हारी | है; जो तुमसे ज्यादा स्वस्थतर है। तुम कोढ़ी हो, वह स्वस्थ है। अपराध की क्षमता कम होने लगती है। अगर तुम अपराधी को तुम बीमार हो, वह स्वस्थ है। तुम सोए हो, वह जागा है। तुम क्षमा नहीं करते तो तुम्हारी अपराध की क्षमता कम नहीं होगी। अंधेरे में पड़े हो, वह रोशनी में खड़ा है। सेवा उसकी, जो हमसे क्योंकि अपराधी को क्षमा न करना एक ही हालत में संभव है कि आगे है। दया उसकी, जो हमसे पीछे हो। क्योंकि सेवा में 475 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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