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जिन सूत्र भाग: 2
धूल का भी इसलिए सत्कार करता हूं
मालिक हुए। जब तक त्याग करने की क्षमता न थी, तब तक तब एक समभाव पैदा होता है। तब न कोई अपना है, न पराया | गुलाम थे। है। तब कोई न मित्र है, न शत्रु है। तब न किसी से सुख है, न 'त्यागशीलता, परिणामों में भद्रता...।' दुख है। तब सब सम है। और जैसे-जैसे बाहर समभाव पैदा बाहर से हजार घटनाएं घट रही हैं। कोई गाली दे जाता है, होता है, भीतर समता पैदा होती है। असली मूल्य तो समता का कोई सम्मान कर जाता है; कोई सफलता का संदेश ले आता है, है, सम्यकत्व का है, समाधि का है।
कोई विफलता का; लेकिन तुम भीतर भद्र रह सको। तुम्हारी ये सभी एक ही धातु से बने हैं-सम। सम्यकत्व हो, समाधि भद्रता अकलुषित रहे। तुम्हारी समता को कोई डिगा न पाए। हो, संबोधि हो, समता हो, समभाव हो, समत्व हो, सब एक ही | तुम्हारे भीतर परिणाम तुम्हारी मालकियत में रहें। तुम्हारा कोई धातु से बने हैं—सम। सम पैदा हो जाए। चीजों के भेद | मालिक न हो सके। तो विफलता को सफलता को एक-सा देख महत्वपर्ण न रह जाएं, चीजों का अभेद दिखाई पड़ने लगे। रूप | लेना। सुख का सुसमाचार आए कि दुख की खबर आए, | महत्वपूर्ण न रह जाएं, रूप के भीतर छिपा अरूप पहचान में | एक-सा देख लेना। तुम्हारा परिणाम अभद्र न हो पाए। तुम्हारे आने लगे।
परिणाम में जरा भी डांवांडोलपन न हो। सोने के हजारों गहने रखे हैं, गहना दिखाई पड़े तो भूल हो रही 'व्यवहार में प्रामाणिकता...।' है। सब गहनों के भीतर सोना दिखाई पड़ने लगे तो तुम ठीक और तुम जो भी करो, वही करो, जो तुम करना चाहते थे। दिशा पर लगने लगे।
तुम्हारा भीतर और बाहर एक जैसा हो। तुम्हारे चेहरे पर नकाब न 'कार्य-अकार्य का ज्ञान, श्रेय-अश्रेय का विवेक, सबके प्रति | हो। तुम्हारे चेहरे पर मुखौटे न हों। तुम सीधे-साफ, नग्न; तुम समभाव, दया, दान में प्रवृत्ति, ये पीत या तेजो लेश्या के लक्षण | जैसे हो वैसे ही; चाहे कोई भी परिणाम हो, तम अपने को
छिपाओ न। दिल तो सबको मेरी सरकार से मिल जाते हैं
प्रामाणिकता बड़ा बहमुल्य शब्द है। जिसको पश्चिम के दर्द जब तक न मिले दिल नहीं होने पाते
अस्तित्ववादी आथेन्टीसिटी कहते हैं, वही महावीर की और जब तक तुम्हारे मन में दया का दर्द न उठे, तब तक तुम्हारे प्रामाणिकता है। पास दिल है नहीं। धड़कने को दिल मत समझ लेना, जब तक हम तो अक्सर...अक्सर चौबीस घंटे में तेईस घंटे कि दूसरे के दर्द में न धड़के। जब तक सिर्फ धड़कता है, तब तक अप्रामाणिक होते हैं। एक घंटा हम प्रामाणिक होते हैं, जब हम सिर्फ फेफड़ा है, फुफ्फस है, जब दूसरे के लिए धड़कने लगे, गहरी नींद में होते हैं; उसका कोई मतलब नहीं। अन्यथा हम करुणा और प्रेम से धड़कने लगे. तभी दिल है।
कुछ कहते, कुछ सोचते, कुछ बतलाते। गिरगिट की तरह हमारा 'त्यागशीलता, परिणामों में भद्रता, व्यवहार में प्रामाणिकता, | रंग बदलता। हम जैसा मौका देखते, तत्क्षण वैसा रंग धर लेते। कार्य में ऋजुता, अपराधियों के प्रति क्षमाशीलता, साधु-गुरुजनों अवसरवादिता प्रामाणिकता के विपरीत है। हमारा अपना कोई की सेवापूजा में तत्परता, ये पद्म लेश्या के लक्षण हैं।' । | स्वर नहीं, कोई आत्मा नहीं। जैसा दूसरा आदमी हम देखते, 'त्यागशीलता'– छोड़ने की क्षमता। पकड़ने की आदत तो वैसा ही हम व्यवहार कर लेते हैं। हम समय के अनुसार चलते, सभी की है। धन्यभागी हैं वे, जो छोड़ने की क्षमता रखते हैं। जो आत्मा के अनुसार नहीं। छोड़ने की क्षमता रखते हैं, वे ही मालिक हैं। जब तक तुम कोई | प्रामाणिकता का अर्थ है: हमारे भीतर अपना बल पैदा हुआ। चीज छोड़ नहीं सकते, तुम उसके मालिक नहीं। जब तक तुम | अब हम अपने बल से जीते हैं। कष्ट झेलना पड़े तो झेल लेते हैं, सिर्फ पकड़ सकते हो, तब तक तुम गुलाम हो।
लेकिन सत्य को नहीं खोते। यह विरोधाभासी लगेगा। लेकिन यह परम सत्यों में एक है कि 'सत्यं वद। धर्मं चर।' हिंदू शास्त्र कहते हैं, सत्य बोले और जब तुम किसी चीज का त्याग कर देते हो, उसी दिन तुम उसके धर्म में चले। जैसा हो वैसा कहे। परिणाम की चिंता छोड़ दें।
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