SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिन सूत्र भाग : 2 नहीं, परमात्मा का भी बेटा हूं। फिर बाप की जो मर्जी! फिर का छोड़ देने का ही अर्थ है, 'तेरी रज़ा पूरी हो।' इस चिंता को उसकी जो रज़ा! वह कुछ बुरा तो न चाहेगा। उससे ज्यादा तभी कोई छोड़ सकता है जब अहंकार को छोड़ दे। जब कह दे समझदार मैं तो नहीं हो सकता। अगर उसने यही चाहा है, तो कि अब मैं नहीं हूं, तू ही है। यही ठीक होगा, इसीलिए चाहा है। उसकी चाह का निर्णय मैं जिसके हृदय में यह दीया जल जाए कि उसकी मर्जी पूरी हो, कौन हूं करनेवाला? और मैं अपनी मर्जी को उसके विरोध में खड़ा न करूंगा, पूछा है, 'तेरी रज़ा पूरी हो।' इसे मैं कहता हूं प्रार्थना का लड़ाऊंगा नहीं, मैं धार के खिलाफ, धारे के खिलाफ बहूंगा नहीं, मूलमंत्र। अगर यही तुम्हारे जीवन पर छा जाए, इसी रंग में तुम नदी जहां ले जाएगी वहीं जाऊंगा, समर्पित करता हूं, अपने को रंग जाओ, तो यही गैरिक-वस्त्र है, यही गेरुआ रंग है। यही छोड़ता हूं उसकी धारा में डुबाये तो डूबूंगा और डूबने को ही संन्यासी की भावदशा है। हर घड़ी जो भी हो, तुम यही जानना किनारा समझंगा। बचाये तो बचूंगा। ऐसी चित्तदशा में दुख हो कि परमात्मा ने किया, ठीक ही किया होगा। बुरा हो तो, भला हो सकता है? पीड़ा हो सकती है? ऐसी चित्तदशा में नर्क हो तो, सुख मिले तो, दुख मिले तो, कांटे मिलें तो, फूल मिलें तो, | सकता है? असंभव। स्वर्ग खुल गया। तुम सभी उसी को समर्पित करते चले जाना। तुम सभी उसको बुझ रहे हैं एक एक करके अकीदों के दीये अर्पित करते चले जाना। कहना, जो तेरी रज़ा। तुम प्रसन्न इस अंधेरे का भी लेकिन सामना करना तो है रहना। तुम बोझ अपने सिर पर न ढोना। तुम नाहक ही अपने | आस्था के दीये बुझते गये। और यह सबसे बड़ा दीया है सिर पर बोझ रखे हो। करनेवाला वही। तुम व्यर्थ करने की आस्था का। यही आस्तिकता है। झंझट अपने सिर पर ले लिये हो। बुझ रहे हैं एक एक करके अकीदों के दीये सुनी है तुमने कहानी? एक सम्राट आता था। राह पर उसने इस अंधेरे का भी लेकिन सामना करना तो है एक भिखारी को देखा। दूर है गांव। सम्राट को दया आ गयी, | और जैसे-जैसे आस्था के दीये बझते गये हैं वैसे अंधेरा गहन उसने भिखारी को कहा, तू भी आ, रथ में बैठ जा। वह भिखारी | होता गया है। और यह सबसे महत्वपूर्ण दीया है। आस्था बैठ तो गया, लेकिन अपनी पोटली जो सिर पर रखे था, सिर पर | का-तेरी रज़ा, तेरी मर्जी, तेरी इच्छा पूरी हो। मैं समर्पित। मैं ही रखे रहा। वह सम्राट ने कहा पोटली नीचे रख दे, अब इसको बहंगा। मैं तैरूंगा भी नहीं। मैं पतवार न चलाऊंगा। मैं नाव में सिर पर क्यों रखे है ? उसने कहा कि नहीं मालिक, इतना ही क्या पाल बांध दिया हूं अब, तेरी हवाएं जहां ले जाएं। कम है कि आपने मुझे बैठने दिया; अब पोटली का बोझ भी रामकृष्ण कहते थे, दो तरह से नदी पार हो सकती है। या तो आपके रथ पर रख। नहीं, नहीं, ऐसा मैं कैसे कर सकता है। पतवार चलाओ, या पाल खोल दो। पाल जो खोल देता है, वही लेकिन तुम रथ पर बैठे हो, पोटली सिर पर रखे हो, क्या सोचते भक्त है। पतवार जो चलाता है, वह भक्त नहीं है। वह अभी भी हो रथ पर बोझ नहीं है? बोझ तो रथ पर ही है, चाहे तुम सिर पर | अपने पर भरोसा किये है। वह अभी भी अपनी बाहुओं के बल रखो, चाहे तुम नीचे रख दो। पर जी रहा है। अभी सोचता है, अगर मैं न कुछ किया, तो उस परमात्मा कर्ता है। सारा कृत्य उसका है। वस्तुतः परमात्मा का पार पहुंचूंगा नहीं। भक्त कहता है, अगर इस पार रखा है, तो कोई और अर्थ नहीं है। इस सारे खेल का जो इकट्ठा जोड़ है। यह पार भी उसी का है। तो इस पार ही रहेंगे। उस पार पहुंच ही इस सारे कर्म के महत प्रवाह का जो केंद्र है, वही तो परमात्मा है। गये। इसी पार रहते हुए उस पार पहुंच गये। लेकिन हम सब अपनी-अपनी पोटली सिर पर रखे हैं, हम कहते दूर कितने भी रहो तुम, पास प्रतिपल, हैं, मैं कर रहा हूं। हम कहते हैं, अब इतना बोझ परमात्मा पर क्योंकि मेरी साधना ने पल निमिष चल, क्या डालना! चांद-तारे जो चला रहा है, वह तुम्हें नहीं चला कर दिये केंद्रित सदा को ताप बल से पायेगा! सारी प्रकृति कैसे लयबद्ध-स्वर में बह रही है। एक विश्व में तुम और तुम में विश्व भर का प्यार! तुम्हीं चिंता लिये बैठे हो कि तुम्हें स्वयं को चलाना है। इस चिंता हर जगह ही अब तुम्हारा द्वार। 2761 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy