________________
जीवन ही है गुरु
है, जो अपने दोष देखने को तैयार है। अहंकार तो अपने दोष | से स्वयं के अध्ययन से यात्रा शुरू होगी। देखने को तैयार ही नहीं होता। इसलिए बदलने का तो कोई 'चारित्र्यसंपन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है।' सवाल ही नहीं है।
__ थोड़ा भी जानो, लेकिन जानो। अपने अनुभव से जानो। थोड़ा । अज्ञानी व्यक्ति, जिसके ऊपर पांडित्य का कोई बोझ नहीं है, भी जानो, लेकिन तम्हारे ही जीवन का निचोड़ हो। रत्तीभर काफी अपने अज्ञान को देखता है और सदा तत्पर होता है बदलने को। है, लेकिन तुमने प्राणों को डालकर उसे सीखा हो। उधार न हो। अज्ञानी सीखने को राजी होता है, पंडित सीखने को राजी नहीं ऊपर-ऊपर न हो। सुना-सुनाया न हो। तुम्हारे भीतर प्राणों ने होता। उसे तो पहले से ही खयाल है कि मैं जानता हूं। गुनगुनाया हो। तुमने अपनी आंख से जाना हो। तुमने अपने
इसीलिए सदियां बीत गयीं, शास्त्र बढ़ते चले गये; आदमी का हाथ से छुआ हो। तो अल्पतम ज्ञान भी बहुत है। ज्ञान भी खूब बढ़ा; मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे भी खूब बने, लेकिन | '...और चरित्रविहीन का बहुत श्रुतज्ञान-बहुत कुछ सुना चरित्र के मंदिर का जन्म न हुआ।
हुआ, बहुत स्मृति से इकट्ठा किया हुआ, वैसा ज्ञान-भी मस्जिदों में मौलवी खुत्बे सुनाते ही रहे
निष्फल है।' मंदिरों में बिरहमन अशलोक गाते ही रहे
हम जानते बहुत हैं बिना जाने। गुरजिएफ के पास जब पहली आदमी मिन्नतकशे-अरबाबे-इर्फी ही रहा
दफा आस्पेंस्की आया-उसका प्रमख शिष्य-तो गुरजिएफ ने दर्दे-इंसानी मगर महरूमे-दर्मा ही रहा।
कहा, तू एक काम कर। एक कागज पर दो खंड कर ले। एक चलते रहे। मौलवी कुरान समझाते रहे। मंदिरों में उपदेश देते तरफ लिख, जो तू जानता है। और एक तरफ लिख, जो तू नहीं रहे ब्राह्मण।
जानता है। और ईमानदारी बरत। क्योंकि अगर मेरे पास कुछ मस्जिदों में मौलवी खुत्बे सुनाते ही रहे
सीखना है, तो ईमानदारी से शुरुआत करनी होगी। फिर मेरा मंदिरों में बिरहमन अशलोक गाते ही रहे
कुछ खोता नहीं, अगर तू बेईमान भी रहे। जो तू लिख देगा कि तू आदमी मिन्नतकशे-अरबाबे-इर्फी ही रहा
जानता है, उस संबंध में मैं फिर कभी तुझसे बात न करूंगा। बात लेकिन आदमी सदा देवताओं के सामने हाथ जोड़े भिखारी ही | खतम हो गयी, तू जानता है। और जो तू लिख देगा कि नहीं बना रहा। वह देवताओं की कृपा का आकांक्षी ही रहा। आदमी | जानता है, उस संबंध में मैं तेरी पूरी सहायता करूंगा जानने के
कभी अपने पैर पर खड़ा न हो पाया। आदमी कभी स्वावलंबी न लिए। अब तू सोच ले। यह कागज ले, भीतर के कमरे में जाकर | बन पाया। आदमी देवताओं के सामने भिखमंगा बना रहा. | लिख ले। आदमी खुद देवता न बन पाया।
आस्पेंस्की प्रसिद्ध आदमी था। बड़ा गणितज्ञ था। जब दर्दे-इंसानी मगर महरूमे-दर्मा ही रहा
गुरजिएफ के पास आया तो गुरजिएफ को तो कोई भी नहीं जानता और आदमी की जो बुनियादी बीमारी है, वह उपचार से वंचित था, आस्पेंस्की का नाम अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का नाम था। उसने रही। आदमी का अहंकार उसकी बनियादी बीमारी है। एक बड़ी अदभुत किताब 'टर्सियम आर्गनम' लिखी थी। ऐसी दर्दे-इंसानी मगर महरूमे-दर्मा ही रहा
किताबें सदियों में एकाध बार लिखी जाती हैं। कहते हैं, दुनिया वह जो मूल पीड़ा है, अकड़ की, वह अपनी जगह खड़ी रही। में केवल तीन किताबें हैं उस मूल्य की, पूरे मनुष्य जाति के खड़ी ही न रही, बल्कि बहुत बढ़ गयी। मंदिरों, मस्जिदों ने इतिहास में। पहली किताब अरिस्टाटल ने लिखी थी। उसका सहारा दिया। आदमी गहन अहंकार से भर गया। इस अहंकार नाम है-'आर्गनम।' पहला सिद्धांत। दूसरी किताब बेकन ने के कारण सीखना ही असंभव। इस अहंकार के कारण झकना लिखी, उसका नाम है—'नोवम आर्गनम।' नया सिद्धांत। असंभव। इस अहंकार के कारण विनम्र होना असंभव। और तीसरी किताब आस्पेंस्की ने लिखी। उसका नाम 'चरित्रहीन पुरुष का विपुल शास्त्र-अध्ययन व्यर्थ है।' है-'टर्सियम आर्गनम।' तीसरा सिद्धांत। कहते हैं, इन तीन महावीर कह रहे हैं, शब्दों से नहीं, अध्ययन से नहीं, स्वाध्याय किताबों का कोई मुकाबला नहीं है।
87
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org