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________________ 86 जिन सूत्र भाग: 2 चूहा नहीं हूं। और जो इस गरीब मुल्ला पर गुजरते देखा है, वह जाओ। उस अंधे ने कहा, तुम पागल हुए हो! मुझे क्या फर्क अब अपने पर गुजरते नहीं देखना चाहता। पड़ता है, कंदील हाथ में हो, या न हो ! अंधेरा अंधेरा है। मैं अंधा हूं, क्या तुम भूल गये ? कंदील क्या करेगी ! लेकिन उस मित्र ने तर्क किया कि माना कि तुम अंधे हो और कंदील तुम्हारे लिए कुछ न कर सकेगी, लेकिन इतना तो करेगी कि दूसरा कोई तुमसे न टकरा सकेगा। रोशनी हाथ में रहेगी, तो दूसरा तुमसे न टकरा सकेगा। यह तर्क अंधे को भी जंचा, वह कंदील लेकर गया। कोई दस-पांच कदम ही गया था कि कोई उससे आ टकराया। उसने कहा, क्या मामला है? क्या तुम भी अंधे हो ? हाथ में कंदील है मेरे, दिखायी नहीं पड़ती ? उस दूसरे आदमी ने कहा कि महानुभाव, आपकी कंदील बुझी हुई है। पता कैसे चले कि कंदील बुझ गयी। अंधे को कंदील का जलना ही पता नहीं चलता, तो बुझना कैसे पता चलेगा? और कहते हैं, उसे अंधे ने लौटकर अपने मित्र को कहा कि मैं वर्षों से चल रहा हूं, कभी मुझसे कोई भी न टकराया था। क्योंकि मैं खुद ही संभलकर चलता हूं, लकड़ी चोट करके चलता हूं, खबर करके चलता हूं कि भई, मैं अंधा हूं। तुम्हारी कंदील ने मुझे आश्वासन दे दिया कि आज तो कोई खबर रखने की जरूरत नहीं । आज तो लापरवाह चल सकता हूं। कंदील तो हाथ में है, कोई टकरायेगा नहीं। यह पहली दफे मेरी जिंदगी में कोई मुझसे टकराया है, तुम्हारी कंदील के कारण टकराया है। कंदील ने भरोसा दे दिया, आत्मविश्वास दे दिया। अन्यथा अंधा अपने अंधेपन के हिसाब से व्यवस्था करके चलता है। लकड़ी टटोलकर, आवाज करके । आज उसने अपनी सहज सावधानी को भी छोड़ दिया। जीवन को खुली आंख से देखते चलें। जो चारों तरफ गुजर रहा है, वही शास्त्र है। जो सब पर गुजर रहा है, वही शास्त्र है। तुम पर गुजर रहा है, उसे भी गौर से देखो। कोई भी जीवन का अनुभव बिना सार निचोड़े मत जाने दो। तो ही धीरे-धीरे परिपक्वता आती है। तो ही धीरे-धीरे ऐसी घड़ी आती है, जहां तुम्हारे भीतर से चरित्र का आविर्भाव होता है। लेकिन उस चरित्र की न तो कोई मांग होती, न कोई आकांक्षा होती, न उस चरित्र का कोई लक्ष्य होता । वह चरित्र स्वयं में सुंदर । स्वांतः सुखाय भीतर ही भीतर उसका रस है। । वैसा व्यक्ति यह भी नहीं कहता कि मैं चरित्रवान हूं, इसलिए मुझे सम्मान मिले। वैसा व्यक्ति यह भी नहीं कहता – यह भी शिकायत नहीं करता कि दूसरे चरित्रहीन सम्मानित हो रहे हैं, यह क्या अन्याय हो रहा है ! वैसा व्यक्ति यह भी नहीं कहता कि चरित्रहीन सफल हो रहे हैं और चरित्रवान असफल हो रहे हैं, हे प्रभु, यह कैसा अन्याय है ! नहीं, उसकी कोई शिकायत नहीं। वह जानता है कि चरित्रहीन कितना ही सफल हो जाए, उसकी सब सफलता अंततः जोड़ में असफलता बन जाती है । वह जानता है कि चरित्रवान सफल हो कि असफल, उसके आनंद में कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी विफलता भी सफलता है। सफलता तो सफलता है ही। वह सड़क पर भिखारी की तरह भी खड़ा हो, तो उसके भीतर सम्राट का भाव होता है । चरित्रहीन, सम्राट की तरह सिंहासन पर भी बैठा हो, तो भी अपराधी के भाव से भरा होता है। असली निर्णय भीतर है। चरित्र का एक सहज सुख है। एक शीतलता है। लेकिन, उस चरित्र का जो अपने से आता है। महावीर कहते हैं, 'चरित्रविहीन पुरुष का विपुल शास्त्र - अध्ययन भी व्यर्थ ही है; जैसे कि अंधे के आगे लाखों-करोड़ों दीपक जलाना व्यर्थ है । ' अगर तुम्हें पता हो कि तुम अज्ञानी हो, तो तुम टटोलकर चलोगे, आवाज करके चलोगे, लकड़ी बजाकर चलोगे; अकड़कर न चलोगे। लेकिन, अगर तुम्हारा अज्ञान शास्त्र - अध्ययन में ढंक गया, तो तुम्हें लगता है, तुम्हारे हाथ में कंदील आ गयी। तुम अकड़कर चलोगे। अज्ञानी के पास जब अंधे के सामने एक दीपक जलाओ, कि करोड़ दीपक उधार ज्ञान हो जाता है, तो ज्ञान तो नहीं आता, सिर्फ अकड़ आती जलाओ, कोई अंतर नहीं पड़ता । है। ज्ञान तो नहीं जलता, सिर्फ अहंकार प्रगाढ़ होता है। सुना है मैंने, एक अंधा अपने मित्र के घर से विदा हो रहा था। तो मित्र ने कहा, रात में अंधेरा ज्यादा है, अमावस की रात है। रास्ते पर कोई दुर्घटना हो जाए, तुम यह हाथ में कंदील लिये | Jain Education International 2010_03 इस अहंकार से चरित्र तो कैसे पैदा होगा! अहंकार तो सबसे बड़ी बाधा है चरित्र में। क्योंकि चरित्र की अगर कोई बुनियाद है, तो निर - अहंकारिता है। अपने को बदलने को वही तैयार होता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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