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________________ प्रेम के कोई गुणस्थान नहीं : मिलते ही किसी के खो गए हम हम सीखते हैं। संदेह बाहर से उधार मिलता है। अगर तुम्हारे जागे जो नसीब सो गए हम . मन में प्रश्न हैं तो फिर तुम्हें ज्ञान के रास्ते पर थोड़ी यात्रा करनी भक्त के लिए प्रतिपल प्रतीक्षा का है। वह राह देख ही रहा है। । होगी। अगर कोई प्रश्न नहीं हैं जीवन में, और तुम्हारे मन में कब आ जाएंगे उसके प्रीतम, कहा नहीं जा सकता। संदेह सहज नहीं उठता, आदत गहरी नहीं हुई संदेह की तो फिर आज आएंगे वो गीतों को जरा चुप कर दो कोई भी अड़चन नहीं है। तुम इसी क्षण परमात्मा के मंदिर में चांद को नभ से उतारो और द्वारे धर दो प्रविष्ट हो सकते हो। द्वार-दरवाजे बंद भी नहीं हैं। चलकर आते हैं, थके होंगे, चरण धोने को आंसू यह कम हैं, जरा आंख में शबनम भर दो पांचवां प्रश्नः ऐसा लगता है कि अब थोड़ी-सी आयु ही चलकर आते हैं, थके होंगे, चरण धोने को बची है। न जाने कौन कब इस शरीर को समाप्त कर दे। इससे आंसू यह कम हैं, जरा आंख में शबनम भर दो मन में एक उतावलापन रहता है कि जो करना है, शीघ्रता से भक्त, भगवान है या नहीं ऐसी जिज्ञासा ही नहीं करता। करूं; अन्यथा बिना कुछ पाए ही चला जाना होगा। भय या भगवान आ ही रहा है। भक्त को प्रश्न ही नहीं उठा है भगवान के अड़चन बिलकुल नहीं लगती। हर क्षण जाने को तैयार हूं। होने न होने का। दुबारा आने से भी डर नहीं लगता। परंतु एक भय, एक जिसको प्रश्न उठ गया, वह श्रद्धा न कर पाएगा। अड़चन अवश्य सताती है कि उस समय आप गुरु भगवान तो हम भक्त की तरह पैदा होते हैं, फिर विनष्ट हो जाते हैं। इसे नहीं उपलब्ध होंगे। क्या मेरा उतावलापन उचित है? मैं क्या थोड़ा समझने की कोशिश करना। प्रत्येक बच्चा भक्त की तरह कर सकता हूं? हर प्रकार से तैयार ही होकर आया हूं। पैदा होता है। होना ही चाहिए क्योंकि स्त्री के गर्भ से पैदा होता है। हृदय के पास धड़कता हुआ पैदा होता है। होना ही चाहिए | ओमप्रकाश सरस्वती ने पूछा है। मैं जानता हूं, वे पूरी तरह प्रत्येक बच्चा भक्त की तरह पैदा-श्रद्धा से भरा, तैयार होकर आए हैं। वे कुछ भी खोने को तैयार हैं, कुछ भी देने स्वीकार-भाव से। 'हां' हर बच्चे का स्वर है। धीरे-धीरे 'ना' को तैयार हैं। और उसी कारण बाधा है। सीखता है, नहीं सीखता है, नकार सीखता है, नास्तिकता हृदय उनका भक्त का है, ज्ञानी का नहीं है। अगर ज्ञानी का सीखता है। उनका स्वभाव होता तो सब कुछ देने की यह तैयारी उन्हें नास्तिकता सीखी जाती है, आस्तिकता हमारा स्वभाव है। गुणस्थानों की सीढ़ियों पर चढ़ा देती। लेकिन बुद्धि उनका नास्तिकता हम बाहर से सीख लेते हैं। जीवन के कड़वे-मीठे स्वभाव नहीं है, हृदय उनका स्वभाव है। इसलिए सब देने की अनुभव, जीवन की धोखाधड़ी हमें नास्तिकता के लिए तत्पर कर यह तैयारी ही बाधा है। इसे भी छोड़ो। उसका ही है, देना क्या देती है। संदेह हम सीखते हैं। श्रद्धा हम लेकर आते हैं। है? समर्पण भी क्या करना है? उसकी ही वस्तुएं उसे देते हुए नास्तिक कोई पैदा नहीं होता, नास्तिक निर्मित होते हैं। आस्तिक शर्म खाओ। पैदा होते हैं। आस्तिक हमारा स्वभाव है।। यह बात ही भूलो कि कुछ देना है। यह बात ही भूलो कि कुछ छोटा बच्चा 'नहीं' कहना जानता ही नहीं। कुछ भी कहो, | करना है। यह पूछो ही मत कि मैं क्या करूं? उतावलापन है ? 'हां' कहता है। अभी उसने 'नहीं' सीखी नहीं है। अभी जीवन उतावलेपन को उतावलापन मत कहो। वह शब्द गलत है। उसे ने उसे इतना दुख नहीं दिया कि वह नहीं कहे। अभी इनकार उसे | प्रतीक्षा कहो, त्वरित प्रतीक्षा कहो, त्वरा से भरी प्रतीक्षा कहो, आया नहीं। अभी किसी ने धोखाधड़ी नहीं की। अभी किसी ने अभीप्सा कहो। उतावलापन गलत व्याख्या है। वंचना नहीं की। किसी ने जेब नहीं काटी। किसी ने उसे सताया | निश्चित ही भक्त को भी एक अधैर्य होता है कि पता नहीं कब नहीं। अभी वह ना कहे कैसे? | मिलन होगा। लेकिन उसके अधैर्य में एक सौंदर्य है। वह अधैर्य आस्तिकता स्वाभाविक है। भक्ति हम लेकर आते हैं। संदेह में भी शांति से जीता है। वह जानता है कि मिलना तो होगा: 5.371 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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