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जिन सूत्र भाग: 2
तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या!
मौत सीखकर गये, तो तुमने कुंजी ले ली। जैसे-जैसे उसकी थोड़ी-सी किरणें तुम्हारे भीतर प्रवेश करती हमने भारत के परम रहस्यवादी ग्रंथों को उपनिषद कहा है। हैं, तो पहले तो किरणें मारती हैं, मिटाती हैं, जलाती हैं। उपनिषद का अर्थ होता है, गुरु के पास होना। उपनिषद का अर्थ तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या!
होता है, पास बैठना। बस इतना। तारक में छवि प्राणों में स्मृति
पास बैठने से क्या हो जाएगा? पलकों में नीरव पद की गति
जो मिट गया है, उसके पास बैठने से तुम्हारे भीतर भी मिटने लघु उर में पुलकों की संसृति
का साहस जगेगा। जो मिट गया है उसके पास बैठने से, उसकी भर लायी हूं तेरी चंचल
खाई में झांकने से, उसकी अतल गहराई में झांकने से तुम भी और करूं जग में संचय क्या!
खिंचने लगोगे अतल गहराई की तरफ। जो मिट गया है उसे थोड़ा-सा परमात्मा संचय कर लो
देखकर तुम्हें पता चलेगा कि जो मिट गया है, कैसा कमलवत हो भर लायी हूं तेरी चंचल
गया है; मरकर कैसे महाजीवन का अवतरण हो जाता है! लघु उर में पुलकों की संसृति
इस जगत में सबसे कठिन बात यह भरोसा है कि मरकर भी मैं और करूं जग में संचय क्या!
बचूंगा। यह बड़ी से बड़ी श्रद्धा है कि मरकर मैं बचूंगा। जिसको तेरा अधर-विचंबित प्याला
यह भरोसा आ गया, वही धार्मिक है। और जो इस भरोसे के तेरी ही स्मित-मिश्रित हाला
सहारे पर चल पड़ा, साधक है। जो पहुंच गया, उसे हम सिद्ध तेरा ही मानस मधुशाला;
कहते हैं। फिर पूर्वी क्यों मेरे साकी!
रोम-रोम में नंदन पुलकित देते हो मधुमय विषमय क्या!
सांस-सांस में जीवन शत-शत परमात्मा का हाथ तुम्हारे पहचानने में आने लगे, फिर तुम न | स्वप्न-स्वप्न में विश्व अपरिचित पूछोगे।
मझमें नित बनते मिटते प्रिय फिर पूर्वी क्यों मेरे साकी
स्वर्ग मुझे क्या निष्क्रिय लय क्या; देते हो मधुमय विषमय क्या!
फिर पूर्वी क्यों मेरे साकी! फिर उस प्याली में जो भी हो; मृत्यु सही, तो महाजीवन है। देते हो मधुमय विषमय क्या! जहर अमत है। फिर मिटा डाले वह तो यही तम्हारे निर्माण की मत्य दे रहा हं तम्हें, ले लेना। दो खयाल रखना। एक, प्रक्रिया है। नष्ट कर डाले, प्रलय में डाल दे तुम्हें, तो यही घबड़ाकर बचाने में मत लग जाना। उस बचाने की प्रक्रिया में तुम्हारा सृजन है।
| तुम्हारे भीतर हजार तर्क उठते हैं, हजार संदेह उठते हैं। वे तर्क सुनार सोने को आग में डालता है। अगर सोने के पास भी और संदेह केवल निमित्त मात्र हैं, वस्ततः गहरे में तम बचना थोड़ी बुद्धि होती, तो चिल्लाता, तड़फता, कहता यह क्या करते चाहते हो, भागना चाहते हो। भागने के लिए कोई हो, मार ही डालोगे क्या? लेकिन सोने को पता भी कैसे हो कि रेशनलाइजेशन, कोई बुद्धिगत उपाय खोजते हो। तो एक तो यही शुद्ध स्वर्ण बनने की प्रक्रिया है। ऐसे, आग में गुजरकर ही इससे बचना। और दूसरी बात, स्वाभाविक है कि आकांक्षा उठे जो शेष रह जाएगा, वही कुंदन है। मरकर भी तुम्हारे भीतर जो कि थोड़ी-थोड़ी मृत्यु घटती है, ऐसा रस आ रहा है, पूरी क्यों नहीं मरता, वही आत्मा है। मिटकर भी जो तुम्हारे भीतर नहीं नहीं घट जाती! उसकी बहुत ज्यादा चाहना मत करना। उसकी मिटता, वही तुम्हारा वास्तविक होना है।
| प्रतीक्षा करना, चाहना नहीं। क्योंकि चाहने से बाधा पड़ेगी। मृत्यु से गुजरना ही होगा। मेरे पास तुम अगर और कुछ | और देर लगेगी। सीखकर गये, तो तुम कूड़ा-कर्कट बीनकर चले गये। अगर कुछ ऐसा है कि जहां से चाह आती है, वह मृत्यु का स्रोत नहीं
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