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________________ जिन सूत्र भाग मत कर।' महावीर कहते हैं, भाव ही असली बात है। क्रिया तो उसकी फिर एक दिन तो लोग कहेंगे छाया है। जो भाव में घट जाता है, वह क्रिया में आयेगा ही। छुप गये वो साजे-हस्ती छेड़कर उलटा जरूरी नहीं है कि सच हो। जो क्रिया में घटता है वह भाव अब तो बस आवाज ही आवाज है में आये, यह जरूरी नहीं है। लेकिन जो भाव में आ गया, वह एक दिन तो वीणा टूट जाएगी। इस जगत में कुछ भी सदा क्रिया में तो आयेगा ही, यह अनिवार्य है। इसलिए भाव मुख्य रहने को नहीं है। महावीर खो जाएंगे। बुद्ध खो जाएंगे। है, प्रथम है, आधारभूत है। लोग भाव की कम चिंता करते हैं, छप गये वो साजे-हस्ती छेड़कर द्रव्य की ज्यादा चिंता करते हैं। समझोअब तो बस आवाज ही आवाज है दान भाव में हो, तो चीजें तो तुम दे सकोगे लोगों को; लेकिन फिर आवाज गूंजती रहती है सदियों तक। लोग ऐसे बेसुध पड़े भाव में देने की क्षमता आ जाए, बांटने का सुख आ जाए, रस हैं कि जब संगीत बजता होता है, तब वे बैठे रहते हैं। जब वीणा आ जाए बांटने में, तो चीजें तो गौण हैं, तुम दे दोगे। कोई खो जाती, सिर्फ प्रतिध्वनि रह जाती; जब शास्ता खो जाते और प्रयोजन नहीं है दूसरी बात का। वह आ ही जाएगी। लेकिन यह शास्त्र मात्र रह जाते, तब बड़ी माथापच्ची लोग करते हैं, बड़ा हो सकता है कि तुम चीजें तो बांटते रहो और देने का भाव विवाद करते हैं। बड़ा चिंतन-मनन करते हैं। बिलकुल न हो। तो चीजों के बांटने को ही तुम सब कुछ मत सारी महफिल जिसपे झूम उठी 'मजाज़' समझ लेना। वह गौण है। दोयम है। वो तो आवाजे-शिकस्ते-साज है। जिसमें खुलूसे-फिक्र न हो, वह सुखन फिजूल जब वीणा टूटती है, तब सोये हुए लोग चौंककर उठते हैं। जिसमें न दिल हो शरीक उस लय में कुछ भी नहीं मज़ाज़ की ये पंक्तियां बड़ी प्यारी हैं तुम गीत तो गा सकते हो, लेकिन अगर दिल ही शरीक न हो, सारी महफिल जिसपे झूम उठी 'मज़ाज़' तो उस लय में कुछ भी नहीं। वो तो आवाजे-शिकस्ते-साज है जिसमें खुलूसे-फिक्र न हो, वह सुखन फिजूल वह तो वीणा के टूटने की आवाज है, पागलो! जिस पर सारी और जिसमें गहराई न हो चिंतन की, मनन की, ध्यान की, उस महफिल झूम उठी। जब महावीर मरते हैं, तब तुम जगते हो। काव्य का कोई भी मूल्य नहीं। तुम काव्य तो रच सकते हो। वह जब महावीर जाते हैं, तब तम चिल्लाते हो। और ऐसा सभी तकबंदी होगी: लेकिन जब तक प्राण न डालोगे, उसमें प्राण न महावीरों के साथ हुआ। ऐसा ही आज भी होता है। आदमी में | होंगे। काव्य शब्दों से नहीं बनता, न मात्राओं से, न छंद के कोई बहुत फर्क नहीं पड़े। कपड़े बदल गये। मकानों के बनाने | नियमों से, काव्य बनता है प्राणों को उंडेलने से। इसीलिए तो के ढंग बदल गये। रास्तों पर बैलगाड़ियों की जगह कारें हैं। | कभी-कभी जिन्होंने प्राण उंडेल दिये, और काव्य के जिन्हें किसी आकाश में पक्षियों की जगह हवाई जहाज हैं। आदमी के पैर नियम का कोई पता न था, वे भी शाश्वत हो गये। जमीन को नहीं छूते, चांद-तारों पर चलने लगे, पर आदमी में | कबीर, कुछ भी जानते नहीं काव्य के नियम। लेकिन शाश्वत कोई फर्क नहीं पड़ा। वही होता रहेगा। | रहेगी उनकी वाणी। हृदय ही उंडेल दिया। मूल ही उंडेल दिया, यही मैं तुमसे भी कहता हूं : भविष्य में लोग कहेंगे, आज जिन तो गौण की क्या फिकिर? मात्राएं पूरी थीं या न थीं; छंद के दिखायी नहीं देते; और जो मार्गदर्शक हैं, वे भी एकमत नहीं हैं; नियम पूरे हुए या न हुए, प्राण ही डाल दिये। भाव ही प्रथम है। किंतु आज तुझे न्यायपूर्ण मार्ग उपलब्ध है। गौतम, क्षणमात्र भी भाव को ही जिन ने, महावीर ने गुण-दोषों का कारण कहा है। प्रमाद न कर। _ 'भावों की विशुद्धि के लिए ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया 'वास्तव में भाव ही प्रथम या मुख्य लिंग है। द्रव्य लिंग जाता है। जिसके भीतर परिग्रह की वासना है, उसका बाह्य त्याग परमार्थ नहीं है। क्योंकि भाव को ही जिनदेव गुण-दोषों का निष्फल है।' कारण कहते हैं।' अगर बाहर का त्याग किया भी जाए तो भी यही ध्यान रखकर 136 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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