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________________ 592 जिन सूत्र भाग: 2 विज्ञान – वनस्पति-विज्ञान | उसे दिखाई पड़ता है वृक्ष किन तत्वों से बना है। उसे दिखाई पड़ता है किन-किन खनिज से मिलकर बना है। पृथ्वी ने क्या-क्या दिया, हवा-पानी से क्या मिला, आकाश- सूरज ने क्या दिया। वैज्ञानिक को दिखाई पड़ता है, यह वृक्ष कैसे निर्मित हुआ है। कैसे इसका सृजन हुआ है। किन चीजों के तालमेल से यह घटना घटी। कवि भी उसी वृक्ष के नीचे आता है। उसे इस सबकी कुछ भी याद नहीं आती। नहीं कि जो वैज्ञानिक कहता है वह गलत है। उसे खनिज, रसायन, पदार्थ, जिनसे बना है वृक्ष, उनका कोई भी बोध नहीं होता। उसे कुछ और ही बोध होता है। उसे दिखाई पड़ती हैं सूरज की किरणें वृक्ष की पत्तियों पर नाचतीं। उसे एक सौंदर्य का, एक अपूर्व सौंदर्य का अनुभव होता है—ऐसा कि वह खुद भी नाच उठे। हवा के गुजरते हुए झोंके उसे किसी और ही लोक की खबर और संदेश दे जाते हैं। वह गुनगुनाने लगता है। वैज्ञानिक गंभीर हो जाता है । सोचने लगता है, विचारने लगता है, विश्लेषण करने लगता है । कवि गुनगुनाने लगता है। गंभीर रहा हो तो गंभीरता गिरा देता है, नाचने लगता है। दोनों सच हैं। सत्य इतना बड़ा है कि दोनों सच हो सकते हैं, साथ-साथ सच हो सकते हैं। सत्य के साथ कंजूसी मत करना । बहुत कंजूसी हुई है इसलिए इसे मैं कहता हूं। सत्य के साथ कंजूसी मत करना। ऐसा मत कहना कि मेरी दृष्टि जहां पूरी होती है वहां सत्य पूरा हो जाता है। तुम्हारी दृष्टि की सीमा है, सत्य की कोई सीमा नहीं। सत्य इतना बड़ा है कि अपने विरोधी को भी समा लेता है। सत्य इतना विराट है कि विरोधाभास भी संयुक्त हो जाते हैं, परिपूरक हो जाते हैं। अमरीका के बड़े महत्वपूर्ण कवि वाल्ट ह्विटमेन से किसी ने | कहा, तुम्हारी कविताओं में बड़े विरोध हैं, बड़े विरोधाभास हैं, कंट्राडिक्शन हैं। कहीं तुम एक बात कहते हो, कहीं दूसरी बात कहते हो। कहीं तुम एक बात कहते हो, कहीं ठीक उससे उल्टी बात कहते हो । पता है वाल्ट ह्विटमेन ने क्या कहा ? वाल्ट ह्विटमेन ने कहा, मैं बहुत विराट हूं । मेरे भीतर सभी विरोध सम जाते हैं और परिपूरक हो जाते हैं। सत्य बड़ा विराट है। उसमें विज्ञान भी समा जाता है, उसमें काव्य भी समा जाता है। उसमें सारे तथ्य भी समा जाते हैं और सारी कल्पनाएं भी समा जाती हैं। उसमें गणित और तर्क भी समा जाता है। उसमें रस और भक्ति और प्रेम भी समा जाता है। जब हम भक्ति की तरह देखते हैं तो हम कुछ चुनते हैं। और जब हम तर्क की तरह देखते हैं तब भी हम कुछ चुनते हैं। जो भी हम देखते हैं वह हमारा चुनाव है। इसका महावीर को बोध था। इसलिए महावीर ने अपनी दृष्टि तो कही, साथ ही यह भी कहा कि यह दृष्टि मात्र है। और सभी दृष्टियों से जो पार हो जाता है, वही परम सत्य को जान पाता है। जो न वैज्ञानिक रह गया, न कवि रह गया । जिसके पास अपने देखने का कोई पक्षपात नहीं, कोई चश्मा नहीं । जिसकी आंख खुली, खाली, निर्दोष, कुंआरी है। जो कुंआरी आंख से देखता है। लेकिन कुंआरी आंख से देखना बड़ा कठिन है। क्योंकि कुंआरी आंख से देखने का अर्थ है, हृदय भी सत्य जैसा विराट होना चाहिए। क्योंकि सारे विरोध समाहित करने होंगे। रात और दिन को विरोध में खड़ा न करना होगा। सुख- और दुख को विरोध में खड़ा न करना होगा। जीवन और मृत्यु को विरोध में खड़ा न करना होगा। दोनों को साथ-साथ देखना होगा, विपरीत की तरह नहीं, एक-दूसरे के परिपूरक की तरह । जैसे शिक्षक काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखता है। काले ब्लैकबोर्ड पर ही लिखा जा सकता है सफेद खड़िया से । सफेद दीवाल पर लिखोगे तो दिखाई न पड़ेगा। तो काला सफेद का दुश्मन नहीं है, परिपूरक है। सफेद को उभार लाता है, सफेद को प्रगट करता है, सफेद के लिए अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना बनता है। Jain Education International 2010_03 दुनिया से जिस दिन कविता खो जाएगी, उस दिन विज्ञान भी खो जाएगा। जिस दिन दुनिया से विज्ञान खो जाएगा, उस दिन कविता भी खो जाएगी। वे एक-दूसरे को उभारते हैं, प्रगट करते हैं। दुनिया समृद्ध है क्योंकि अनंत अनंत दृष्टियों का यहां मेल है। दुनिया में इतने धर्म हैं, वे मनुष्य को समृद्ध करते हैं। वे अलग-अलग देखने की दृष्टियां हैं। तुम्हें जो रुचिकर लगे, तुम्हें जो भा जाए उस पर चलना । यह वचन तो ऋषि का हो गया। यह तो बड़ी सूझ का गया। लेकिन भूलकर भी ऐसा मत सोचना कि यही सत्य है, यही मात्र यह तो बड़ी अंतर्दृष्टि का हो गया। सत्य है। जिसने ऐसा सोचा, यही सत्य है, उसने अपने सत्य को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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