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________________ जिन सत्र भाग : 2 भी समय मिलता-तो जर्मनी से पूना आना एक दिन के लिए! हे परमात्मा, यह भी कैसी सफलता है प्रेम की! लेकिन उतने दिन के लिए भी आती है। एक बार तो सिर्फ पांच खुद गुम हुए तो क्या, उसे पाये हुए तो हैं घंटे ही रुकी। तो कहने को आती है। कुछ निवेदन करने को है। खुद तो खो जाता है प्रेमी, उसे पा लेता है। शब्द तो खो जाते पूछा, कुछ कहना है? कहा, नहीं, कुछ भी नहीं कहना है। | हैं, मन तो खो जाता है, अहंकार तो खो जाता है। लेकिन उसके चेहरे पर, उसकी आंखों में, उसके हृदय में बहुत भाव के सिंधु में बताशा है कुछ भरा है। तो मैंने उससे कहा कि खैर न कह तू, चुप रह। शब्द तो शोर है तमाशा है उसने आंख बंद कर लीं, और वह ऐसे शब्दहीन-शब्द उच्चार | मर्म की बात ओंठ से न कहो करने लगी जैसे छोटा बच्चा दो-चार महीने का मौन ही भावना की भाषा है सिसक-सिसककर रोने लगे, और भाषा तो जानता नहीं दो-चार ज्ञान तो बस बुद्धि का खिलवाड़ है महीने का बच्चा, तो कुछ भी अनर्गल, अर्थहीन बोलने लगे। ध्यान जब तक ढोंग का दरबार है ऐसा छोटे बच्चे की तरह वह सिसकने लगी, रोने लगी। मंदिरों से व्यर्थ ही मारो न सिर टूटे-फूटे शब्द जिनका कोई अर्थ नहीं है, वह उसके बाहर आने | आदमी का धर्म केवल प्यार है लगे। उस घड़ी वह छोटी बच्ची हो गयी। उस घड़ी उसने अपने जो प्यार को समझ ले, सब समझ लिया। पूछा है, प्रेम में प्रश्न हृदय को ऐसा उंडेल दिया जैसा भाषा में कभी भी नहीं उंडेला जा हो, उत्तर हो, या चुप्पी? प्रेम में प्रेम ही हो, बस इतना काफी है। सकता। क्योंकि भाषा तो बड़ी बुद्धिमानी की है! न उतर, न प्रश्न, न चुप्पी। प्रेम में बस प्रेम हो, इतना काफी है। भाव के सिंधु में बताशा है खामोशी सीखो। शब्द तो शोर है तमाशा है खामोश ऐ दिल भरी महफिल में चिल्लाना नहीं अच्छा उसकी भाषा बताशे की तरह घुल गयी भाव के सिंधु में। कुछ अदब पहला करीना है मुहब्बत के करीनों में उबलने लगा। कुछ गुनगुनाहट फूटने लगी। उसे भी पता नहीं, | प्रेम को चिल्लाकर मत कहो। क्योंकि चिल्लाने में प्रेम नष्ट हो क्या हो रहा है। उसके भी बस के बाहर है। उसके भी नियंत्रण | जाता है। प्रेम बड़ा कोमल तंतु है। चुप्पी तक में नष्ट हो जाता है, के बाहर है। जैसे कुछ बहुत शुद्ध भाषा-जैसा आदमी पहली बोलने की तो बात छोड़ो! प्रेम एक विरोधाभास है। दफा बोला होगा पृथ्वी पर। या छोटे बच्चे बोलते हैं पहली 'पैराडाक्स।' वहां बोलना और न बोलना दोनों का मिलन होता दफा-कुछ भी-अबाऽ बाऽऽ बाऽऽ बाऽऽ बाऽऽ बाऽ...इस है। वहां सीमित की और असीम की मुलाकात होती है। वहां तरह के शब्द बोलने लगी। सब टूटे हुए। संसार और परमात्मा एक-दूसरे को छूते हैं। वहां मैं और तू लेकिन उसने कह दिया जो कहना था। मैंने सुन लिया जो घुलते हैं और पिघलते हैं। नहीं, प्रेम के पास कोई प्रश्न नहीं है। सुनना था। भाव से जुड़ गयी। एक सेतु उसने बना लिया। और प्रेम के पास कोई उत्तर भी नहीं है। प्रेम काफी है। अल्लारी कामयाबी-ए-आवारगाने-इश्क इसे ऐसा समझने की कोशिश करो। खुद गुम हुए तो क्या उसे पाये हुए तो हैं । जब तुम प्रसन्न होते हो, तब तुम कभी नहीं पूछते कि प्रसन्न मैं उस क्षण वह खो गयी। लेकिन उस खोने में ही प्रगट हुई। | क्यों हूं। लेकिन जब तुम दुखी होते हो तब तुम जरूर पूछते हो प्रेमी अपने को खो देता है, परमात्मा को पा लेता है। | कि दुखी मैं क्यों हूं? जब तुम स्वस्थ होते हो, तब तुम जाते हो अल्लारी कामयाबी-ए-आवारगाने-इश्क चिकित्सक के द्वार पर कि बताओ मैं स्वस्थ क्यों हूं? लेकिन यह भी कैसी सफलता है, आवारा इश्क की। प्रेम तो सदा जब तम बीमार होते हो तो जरूर जाते हो। जाना ही पड़ता है आवारा है। प्रेम का कोई घर थोड़े ही है। क्योंकि सारा अस्तित्व पूछने कि मैं बीमार क्यों हूं? बीमारी का तो कारण खोजना पड़ता उसका घर है। प्रेम तो बंजारा है।। है। स्वास्थ्य का कारण किसी ने कभी खोजा? कोई बता पाया अल्लारी कामयाबी-ए-आवारगाने-इश्क कि आदमी स्वस्थ क्यों होता है? अभी तक तो कोई नहीं बता 174 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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