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________________ | पाया है-न आयुर्वेद, न एलोपैथी, न यूनानी, कोई नहीं बता पाया कि आदमी स्वस्थ क्यों होता है? स्वस्थ तो आदमी होता है । हां, जो स्वस्थ नहीं वहां कोई कारण होगा। झरना तो बहता है। नहीं बहता, तो कोई पत्थर पड़ा होगा। बीज तो फूटता है। वृक्ष बनता है। न फूट पाये, न वृक्ष बन पाये, तो कोई अड़चन होगी - जमीन पथरीली होगी, कि पानी न मिला होगा। बच्चा तो बड़ा होता है, बढ़ता है, जवान होता है। न बढ़ पाये, तो कुछ गड़बड़ है। । आनंद स्वाभाविक है। आनंद के लिए कोई प्रश्न नहीं है। दुख अस्वाभाविक है। दुख का अर्थ ही है, जो नहीं होना चाहिए था सुख का अर्थ है, जो होना ही चाहिए। सुख का अर्थ है, जिसे हम बिना कारण स्वीकार करते हैं। और दुख का अर्थ है, जिसे हम कारण के सहित भी स्वीकार नहीं कर पाते। कोई कारण भी बता दे तो क्या सार है! तुम गये डाक्टर के पास, उसने कहा कि कैंसर हो गया है। कारण भी बता दे कि इसलिए कैंसर हो गया है, तो भी क्या सार है! कारण को भी क्या करोगे ? सुख तो अकारण भी स्वीकार होता है। दुख कारण सहित भी | स्वीकार नहीं होता। फिर कारण की खोज हमें करनी पड़ती है दुख के लिए, क्योंकि कारण का पता न चले तो दुख को मिटाएं कैसे ? जिसे मिटाना हो, उसका कारण खोजना पड़ता है। जिसे मिटाना ही न हो, उसके कारण की खोज की कोई जरूरत ही नहीं है । उसे हम जीते हैं। प्रेम परम स्वास्थ्य है। प्रेम परमात्मा की झलक है तुम्हारे दर्पण में। कोई पूछता नहीं कि प्रेम क्यों है? प्रेम बस होता है । | स्वीकार है। सहज स्वीकार है। न कोई उत्तर है, न कोई प्रश्न है । न कुछ बोलना है, न कुछ बोला जा सकता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रेम कोई रिक्तता है। प्रेम बड़ा भराव है। परम भराव है। पात्र पूरा भर जाता है। पात्र खाली हो तो आवाज होती है। अधूरा भरा हो, तो आवाज होगी। पात्र पूरा भर जाए, तो आवाज खो जाती है। ऐसे ही जब कोई प्रेम से भर जाता है— कोई प्राण का पात्र - सब खो जाता है। प्रेम हो, इसकी ही चिंता करो। तुम ऐसे भर जाओ कि कहने को कुछ न रहे। पूछने को कुछ न रहे। तुम ऐसे शांत हो जाओ कि कोई प्रश्नचिह्न तुम्हारे भीतर न बचे। क्योंकि प्रश्नचिह्न एक तरह की बीमारी है। कांटे की तरह चुभता है प्रश्न । जिसके हृदय Jain Education International 2010_03 किनारा भीतर है। पर प्रश्नचिह्नों की कतार लगी है, 'क्यू' लगा है, वह आदमी नर्क में जीता है। उसका जीवन एक दुख-स्वप्न है। प्रश्नों को हटाते जाओ, गिराते जाओ। और बहुत से लोग तो व्यर्थ के प्रश्न इकट्ठे किये हुए हैं... संसार को किसने बनाया ? क्या लेना-देना है ! इसलिए महावीर ने नहीं पूछा यह प्रश्न कि संसार को किसने बनाया। उन्होंने कहा, सदा से है, यह बनाने की बकवास बंद करो। क्योंकि तुम पूछो, किसने बनाया, इससे कुछ हल न होगा। बता दें कि 'अ' ने बनाया, तो तुम पूछोगे 'अ' को किसने बनाया? तो 'ब' ने बनाया। तुम पूछोगे, 'ब' को किसने बनाया? यह कुछ हल न होगा। तो महावीर कहते हैं, अनादि है, अनंत है। किसी ने नहीं बनाया, इस झंझट में पड़ो मत। उनका कुल मतलब इतना है कि झंझट में पड़ो मत। है। इससे राजी हो जाओ। इसके रहस्य को जानो, इसके रहस्य को जीओ। इसको प्रश्न मत बनाओ । इसको जीओ। इसमें डुबो, इसमें उतरो । जीवन एक समस्या न हो, एक रहस्य हो। एक प्रश्न न बने, प्रार्थना बने। जीवन को कोई एक दर्शनशास्त्र नहीं बनाना है, जीवन को प्रेम का मंदिर बनाना है । इसलिए महावीर ने कहा मत पूछो यह । आत्मा कहां से आयी ? महावीर कहते हैं, सदा से है। तुम व्यर्थ के प्रश्न मत पूछो। सारे सत्पुरुषों ने व्यर्थ के प्रश्नों को काटना चाहा है। अगर उन्होंने उत्तर भी दिये हैं, तो इसीलिए दिये हैं ताकि तुम व्यर्थ के प्रश्नों से छूटो | अगर वे चुप रहे, तो इसीलिए चुप रहे कि तुम व्यर्थ के प्रश्नों से छूटो । बुद्ध तो उत्तर ही न देते थे, कोई पूछता था प्रश्न तो चुप रह जाते थे । वे कहते कि तुम भी चुप हो जाओ। ऐसे चुप होकर मैंने पाया, चुप होकर तुम भी पा लोगे। मन जब बिलकुल शांत होता है, कोई प्रश्न नहीं 'उठाता, तो सब द्वार खुल जाते हैं। प्रश्न ही तालों की तरह लगे हैं तुम्हारे जीवन के द्वारों पर ! पांचवां प्रश्नः आपको सुनते-सुनते कई बार आप रंगीन दिखायी पड़ने लगते हैं, और फिर भी एक खालीपन की भांति । आपकी कुर्सी के पीछे की दीवाल भी रंगीन दिखायी पड़ती है, For Private & Personal Use Only 75 www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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