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जिन सूत्र भाग : 2
अंततः मूल्यहीन सिद्ध हुआ। और अब हाथ को और भरने की लेकिन सत्य का अनुभव ऐसा है कि उससे मिलता हुआ कोई आकांक्षा न रही।
भी अनुभव इस संसार में नहीं है। जो बाहर देखा है उससे किसी पात-पात डोलती है प्रार्थना
से भी जो भीतर दर्शन होते हैं, उसका तालमेल नहीं। जो परदेश सांझ गुनगुनाने लगी।
में जाना है और जो स्वदेश लौटने का अनुभव होता है, उसे तो जिस दिन बाहर से आंख हटने लगती है. उसी दिनः परदेश की भाषा में कहने का कोई उपाय नहीं। पात-पात डोलती है प्रार्थना
तो यह स्वभाव को विभाव में कहने की चेष्टा है। सांझ गुनगुनाने लगी
रहिमन बात अगम्य की कहन-सुनन की नाहीं तो अब घर जाने का समय करीब आ गया।
जे जानत ते कहत नहीं, कहत ते जानत नाहीं प्रार्थना, जो बाहर से घर की तरफ लौटने लगे और अभी घर कुछ बात ऐसी है अगम्य की, कि कहने-सुनने की नहीं है। जो नहीं पहुंचे—बीच का पड़ाव है। जो संसार में हैं उनके हृदय में जानते हैं, कहते नहीं। जो कहते हैं, जानते नहीं। प्रार्थना नहीं उठती। जो परमात्मा में पहुंच गए, उनको प्रार्थना की इसका यह अर्थ नहीं कि जाननेवालों ने नहीं कहा है; कहा है जरूरत नहीं रह जाती। प्रार्थना सेतु है बाहर से भीतर आने का; और कहकर भी कह नहीं पाया है। कहा है और फिर कहा कि परदेश से स्वदेश आने का; विभाव से स्वभाव में आने का। कह नहीं पाए। फिर-फिर कहा है। महावीर जीवनभर निर्वाण के पात-पात डोलती है प्रार्थना
संबंध में अनेक-अनेक ढंगों से, अनेक-अनेक इशारों का सांझ गुनगुनाने लगी।
उपयोग करके बोलते रहे, लेकिन कैसे कहो उसे? कैसे कहो संसार की सांझ आ गई। और जो संसार की सांझ है वही उसे, जो शब्दों के शून्य हो जाने पर अनुभव होता है? कैसे कहो निर्वाण की सुबह है।
उसे, जो भाषा के अतिक्रमण पर अनुभव होता है? कैसे कहो रोक लूं मैं बादलों की घंटियां
उसे, जो घर के भीतर आने का अनुभव होता है? बजने से पुरवा के पांव में
भाषा तो सब घर के बाहर की है। भाषा तो सब बाजारू है। झलकने लगी पीली बत्तियां
भाषा तो दूसरे से बोलने के लिए है। जब तुम अकेले हो, जले हुए दीपों के गांव में
बिलकुल अकेले हो, अपने नितांत स्वरूप में आ गए, वहां कोई अंधकार झूलता है पालना
दूसरा नहीं है तो भाषा का कोई प्रयोजन नहीं है। वहां बोलने का याद घर बुलाने लगी।
कोई उपाय नहीं है। वहां तो परम मौन है। आज के सूत्र महावीर की अंतिम निष्पत्तियां हैं। ये सूत्र निर्वाण अपने से बाहर गए, दूसरे से मिले-जुले, संबंध बनाया तो के हैं। ये सत्र घर आ गए व्यक्ति का आखिरी वक्तव्य हैं। ये बोलना पड़ता है। तो ऐसा नहीं है कि जिन्होंने जाना, नहीं बोला. सूत्र ऐसे हैं, जो कहे नहीं जा सकते, जिन्हें कहने की चेष्टा भर की लेकिन बोल-बोलकर भी बोल नहीं पाए। बोल-बोलकर अंततः जा सकती है। ये सूत्र ऐसे हैं, जो अभिव्यक्त नहीं होते, भाषा यही कहा कि क्षमा करना, हम जो कहते थे, वह कह नहीं पाए। छोटी पड़ती है. शब्द संकीर्ण हैं। और विराट को संकीर्ण शब्दों लेकिन फिर भी जिन्होंने कहा है उनमें महावीर का वक्तव्य | के सहारे लाना पड़ता है।
अत्यधिक वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक होना कठिन है, लेकिन अगर इसलिए इन शब्दों को बहुत कसकर मत पकड़ना। इन्हें बहुत सारे वक्तव्यों को तौला जाए तो महावीर का वक्तव्य सहानुभूति से, बहुत श्रद्धा से भाषा की असमर्थता को याद रखते अतिवैज्ञानिक है। सत्य को देखा जाए, तब तो बहुत दू हुए समझना।
से। सभी वक्तव्य दूर होते हैं। और वक्तव्यों को देखा जाए तो एक तो गणित की भाषा होती है, जहां दो और दो चार होते हैं। निकटतम है। बस, दो और दो चार होता और कुछ भी नहीं होता। सब पहला सूत्रः सीधा-साफ होता है।
ण वि दुक्खं ण वि सुक्खं, ण वि पीडा णेव विज्जदे बाहा।
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